24. छान्दोग्य उपनिषद् प्रपा 2/22 अक्षरों का शुद्ध उच्चारण और उनका आध्यात्मिक महत्त्व

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Prahari

Prahari

Күн бұрын

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@chandrakanta1470
@chandrakanta1470 7 сағат бұрын
🙏🏻🚩
@ashokagrawal4513
@ashokagrawal4513 9 күн бұрын
ओम् , सादर प्रणाम आचार्य जी ।
@Aryaji-r8p
@Aryaji-r8p 10 күн бұрын
सादर नमस्ते आचार्य जी।
@Aryaji-r8p
@Aryaji-r8p 10 күн бұрын
साधुत्व वेश और परिवेश : साधुत्व कोई बाल-लीला नहीं है। वह इन्द्रिय, मन और वृत्तियों के विजय की यात्रा है। इस यात्रा में वही सफल हो सकता है जो दृढ़-संकल्प और आत्मलक्षी दृष्टि का धनी होता है। भगवान् महावीर ने देखा बहुत सारे श्रमण और संन्यासी साधु के वेश में गृहस्थ का जीवन जी रहे हैं। न उनमें ज्ञान की प्यास है, न सत्य शोध की मनोवृत्ति, न आत्मोपलब्धि का प्रयत्न और न आन्तरिक अनभूति की तड़प। वे साधु कैसे हो सकते हैं? भगवान् साधु-संस्था की दुर्बलताओं पर टीका करने लगे। भगवान् ने कहा - 'सिर मुंडा लेने से कोई श्रमण नहीं होता। ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता। वल्कल चीवर पहनने से कोई तापस नहीं होता। श्रमण होता है समता से ब्राह्मण होता है ब्रह्मचर्य से मुनि होता है ज्ञान से तापस होता है तपस्या से। 'जैसे पोली मुट्ठी और मुद्रा-शून्य खोटा सिक्का मूल्यहीन होता है, वैसे ही व्रतहीन साधु मूल्यहीन होता है। वैडूर्य मणि की भांति चमकने वाला कांच, जानकार के सामने मूल्य कैसे पा सकता है? आज हमारे देश में बहुत लोग साधु के वेश में घूम रहे हैं। हमारे सामने बहुत बड़ी समस्या है, हम किसे साधु मानें और किसे असाधु ?' भगवान् ने कहा- 'तुम्हारी बात सच है। आज बहुत सारे असाधु साधु का वेश पहने घूम रहे हैं। वे भोली-भाली जनता में साधु कहलाते हैं। किन्तु जानकार मनुष्य उन्हें साधु नहीं कहते। भंते ! वे साधु किसे कहते हैं?' भगवान् ने कहा 'ज्ञान और दर्शन से संपन्न,संयम और तप में रत जो इन गुणों से समायुक्त है, जानकार मनुष्य उसे साधु कहते हैं। #भगवान_महावीर ❣️
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