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व्यक्ति को अपनी जीवनयात्रा में कषाय वश पद-पद पर अंतरंग व बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन एक श्रेयोमार्गी के लिए आवश्यक है । भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधनार्थ, प्रायश्चित्त पश्चात्ताप व गुरु के समक्ष अपनी निंदा-गर्हा करना प्रतिक्रमण कहलाता है । दिन, रात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर आदि में लगे दोषों को दूर करने की अपेक्षा वह कई प्रकार हैं ।
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