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इस वीडियो में हम भक्तशिरोमणि संत नामदेव जी के चरित्र को सुन रहे हैं।
आप जो भी इस वीडियो में सुन रहे हैं, वो "भक्तमाल" पुस्तक से ली गयी है।
महान संत - 1
Mahan Sant - 1
श्रीनामदेवजी बचपनमें खिलौनोंसे खेलते थे, आप खेलमें ही भगवान्की सेवा-पूजा करते थे, वे
किसी काष्ठ या पाषाणकी मूर्ति बना लेते और फिर उसे बड़े प्रेमसे वस्त्र पहनाते, भोग लगाते, घण्टा बजाते तथा नेत्र बन्द करके मनमें अच्छी तरह भगवान्का ध्यान करते । वे जैसे-जैसे इन कार्योको करते थे, वैसे-वैसे वे अत्यन्त सुख पाते थे। प्रेमवश उनके नेत्रोंमें जल भर जाता। नामदेवजी अपने नाना वामदेवजीसे बारबार कहते कि भगवान्की सेवा मुझे दे दीजिये। सेवा मुझे बहुत प्यारी लगती है। इस प्रकार नामदेवजीने बार-बार कहा। कुछ समय बाद वामदेवजीने नामदेवसे कहा कि मैं एक गाँवको जाऊँगा और तीन दिनमें लौट आऊँगा, तबतक तुम भगवान्की सेवा करना और भगवान्को दूध पिलाना, स्वयं मत पी जाना। यदि अच्छी प्रकारसे तीन दिन सेवा करोगे तो तुम्हें ही सेवा सौंप दी जायगी।।
श्रीनामदेवजीके हृदयमें सेवा प्राप्त करनेकी लालसा बढ़ी, वे नानाजीसे बार-बार पूछते कि अभी आप गये नहीं? एक दिन नानाजीके बाहर गाँव जानेका समय आ गया, वे चले गये। नामदेवजीने अच्छी तरह देखभालकर कड़ाहीमें दो सेर दूध डाला और मनमें निश्चय किया कि दूधकों औटाकर अति उत्तम बनाऊँ, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु पी लें। श्रीनामदेवजीके हृदयमें प्रेमकी बड़ी भारी उमंग थी, उन्हें चिन्ता भी थी कि सेवामें कोई त्रुटि न हो जाय।
बालक नामदेवजी दूध औटाकर उसे एक सुन्दर कटोरे में भरकर भगवान्के समीप ले आये। दूधमें इलायची और मिश्री मिलायी। दूध पिलानेकी आशासे परदा कर दिया। कुछ देर प्रेमकी लम्बी श्वासे भरते रहे फिर परदा हटाकर देखा तो दूधभरा कटोरा ज्यों-का-त्यों रखा था। इससे इनके मनमें बड़ी निराशा हुई और भगवास्े प्रार्थना करने लगे कि प्रभो! आप दूध पीकर तृप्त हो जायँ।
श्रीनामदेवजी भगवान्को दूध-भोग लगाते और यह देखते कि भगवानने दूध नहीं पिया है, इस प्रकार दो दिन बीत गये। स्वयं भी उन्होंने अन््न-जल आदि कुछ भी ग्रहण नहीं किया और इस बातको अपने मनमें ही छिपाकर रखा। माताजीको भी नहीं बताया और भूखे-प्यासे ही रातको सो गये, पर चिन्ताके कारण निद्रा नहीं आयी। तीसरे दिनका सबेरा हुआ, फिर उसी प्रकार सावधानीसे दूधको औटाया इलायची, मिश्री मिलायी और आज प्रभु अवश्य ही दूध पी लेंगे--इस भावसे मनको मजबूत करके भगवान्के सामने दूध रखा और कहा-प्रभो! (नानाजी दूध पिलानेको कह गये थे) आप दूधको पीजिये, तभी मैं प्रसन्न होऊँगा। इतनेपर भी जब भगवानने दूध नहीं पिया, तब श्रीनामदेवजी बोले--मैं बारम्बार आपसे दूधकी विनती करता
हूँ, परंतु आप दूध नहीं पीते हैं। कल प्रात:काल नानाजी आ जायँगे और वे हमपर रुष्ट होंगे, फिर कभी सेवा मुझे नहीं देंगे। इसलिये ऐसे जीनेसे तो मरना ही अच्छा है। ऐसा कहकर छूरी निकाली और भगवान्को दिखाकर अपना गला काटनेके लिये गलेपर छुरी चलाना ही चाहते थे कि भगवान्ने हाथ पकड़ लिया और कहा कि अरे ! ऐसा मत करो, मैं अभी दूध पीता हूँ। यह कहकर भगवान् दूध पीने लगे। श्रीनामदेवजीने देखा कि ये तो सब दूध पी जायँगे, तब बोले कि थोड़ा--सा प्रसाद मेरे लिये भी रहने दीजियेगा; क्योंकि नानाजीके भोग लगानेपर मैं सदा दूध-प्रसाद पीता था।
चौथे दिन वामदेवजी गाँवसे लौटकर आये और नामदेवजीसे अच्छी प्रकार सेवा की या नहीं यह पूछा तो इन्होंने अत्यन्त प्रेमरंगमें भरकर दुग्धपानलीलाका सारा वर्णन किया। यह सुनकर वामदेवजीने कहा कि मेरे सामने फिर पिलाओ, तब हम जानें। तब श्रीनामदेवजीने उसी प्रकार दूध तैयार करके भगवान्के सामने रखा, पर भगवानने नहीं पिया, तब अड़ गये उसी प्रकार छुरी निकालकर गला काटनेको तैयार हो गये कि कल पीकर आज नानाजीके सामने मुझे झूठा बनाना चाहते हो। आपको दूध पीना ही पड़ेगा। बालकके प्रेमहठसे प्रसन्न होकर भगवान्ने वामदेवजीके देखते-देखते दूध पिया और प्रसाद नामदेवको पिलाया। वामदेवजीने सोचा कि मैंने जीवनभर सेवा की, पर दर्शन नहीं हुए। आज बालकके प्रभावसे दर्शन हुए। इस प्रसंगके द्वारा भगवान्ने यह दिखला दिया कि मैं भक्तके वशमें होकर उसके प्रेमके कारण अर्पित भोगको ग्रहण करता हूँ।
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