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( रचयिता: आनंदघन जी महाराज )
00:26 - गाथा 1
ऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे, ओर न चाहुं रे कंत;
रीझ्यो साहेब संग न परिहरे रे, भांगे सादि अनंत. १
01:34 - गाथा 2
प्रीत सगाई रे जगमां सहु करे रे, प्रीत सगाई न कोय;
प्रीत सगाई रे निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय. २
02:46 - गाथा 3
कोई कंत कारण काष्ठभक्षण करे रे, मिलशुं कंतने धाय;
ए मेळो नवि कहिये संभवे रे, मेळो ठाम न ठाय. ३
03:59 - गाथा 4
कोई पतिरंजन अति घणुं तप करे रे, पतिरंजन तन ताप;
ए पतिरंजन में नवि चित्त धर्यु रे, रंजन धातुमिलाप. ४
05:11 - गाथा 5
कोई कहे लीला रे अलख अलख तणी रे, लख पूरे मन आश;
दोषरहितने रे लीला नवि घटे रे, लीला दोषविलास. ५
06:24 - गाथा 6
चित्तप्रसन्ने रे पूजनफल कह्युं रे, पूजा अखंडित एह;
कपटरहित थई आतम अरपणा रे, आनंदघनपद रेह. ६