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॥अथ अष्टमो अध्याय॥
सर्व द्वाराणि संयम्य, मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्या धायात्मनः प्राणमा स्थितो योग धारणाम् ॥
ओमित्येक अक्षरं ब्रह्म, व्याहरन् मामनु स्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं, स याति परमां गतिम् ॥
जो सब इन्द्रिय द्वारों को रोक कर मन को हृदय में धारण को पड़ता प्राण को मस्तक में ले जाकर
समाधि-योग से स्थित 🕉️ इस ब्रह्म् अक्षर का उच्चारण करता हुआ, जो देह को त्यागता है,
उसे रात्रि मोक्षरूप उत्तम गति प्राप्त होती है।
हे पार्थ! जो मुझ में ही मन ज्ञाता लगाकर
नित्य प्रति मेरा स्मरण करते हैं,
उन सदैव स्मरण करने उदय वाले
योगियों को मैं बहुत सुलभ रीति से प्राप्त होता हूँ।