Рет қаралды 218
सहज मार्ग साधना द्वारा 'मालिक' का द्वार खटखटाने के लिये ध्यान में डूबे अन्तर्मन की लगन जब सतत् लग जाती है, तब बहुधा अन्तर में मैंने ऐसा आभास पाया कि मानों 'खोजी मन' और 'मालिक' यहीं कहीं आस-पास हैं। ऐसे आभास ने मन में ऐसी खिचन पैदा कर दी कि बहुधा दिन में काम-काज करते समय भी या सोते में भी ऐसा लगता था कि मानों कोई आकर्षण मुझे हर पल अपनी ओर खींच रहा है। आज यह एहसास इस बात का सत्य प्रमाण हो गया है कि ईश्वर-प्राप्ति मानव मात्र के लिये सम्भव है। सच मानिये तो इस कशिश के स्वयं ही अन्तर में उत्पन्न हो जाने पर ईश्वर और उसका प्रकाश हमारे हृदय में ऐसा सूत्र बन जाता है, जिसमें अन्तर्मन बँध जाता है। अब ध्यान में बैठने की यही मानना (सपोज करना) समाप्त हो जाती है कि ईश्वर हमारे अन्तर में है, वरन् तब से 'मानने' शब्द को अन्तर स्वयं में प्रवेश ही नहीं देने देता है। लगता है वह इस शब्द को बाहर ही फेंक देता है, क्योंकि उसे तो उस साँचे ईश्वरीय आकर्षण से मोह उत्पन्न हो जाता है। क्रमशः यह मोह भी खुद ही भंग हो जाता है। जानते हैं कब ? जब ध्यान में श्री बाबजी द्वारा बताई डिवाइन लाइट कुल हृदय के साथ ही रोम-रोम में ऐसी भर जाती है कि इससे धीरे-धीरे अन्तर-चक्षुओं में इसका समाना शुरू हो जाता है और वही हमारे अन्तर में ईश्वर के आविर्भाव को प्रकाशित कर देता है। परिणामतः दिन भर काम में हम चाहे कितने ही व्यस्त क्यों न हों, किन्तु हमें यह ध्यान बराबर रहने लगता है कि जो हमारे अन्तर में विद्यमान है, उसकी सामीप्यता कभी न ओझल होने दें । इतना ही नहीं, ध्यान अपने दामन में इस 'दिव्य' को समेट पाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने लगता है और वियोग की व्यथा पैदा हो जाती है। कैसा सुन्दर एवं पावन चित्रण हमें अन्तर में मिलता है कि एक ओर तो ध्यान बराबर उस दैविक-सामीप्यता के एहसास का सुख स्वयं में भर लेना चाहता है और दूसरी ओर इससे ही योग पाया हुआ अन्तर्मन ध्यान में लय रहने लगता है, जो उस सामीप्य के सतत् सेंक से पगा हुआ अन्तर में विद्यमान ईश्वर की ओर उन्मुख रह कर ऐसी परिपक्व अवस्था पा लेता है कि फिर लौट कर पीछे देखना भूल जाता है। बस, यह दशा प्राप्त हो जाने पर मन की गति सदैव के लिये ऊर्ध्वमुखी हो जाती है और श्री बाबूजी महाराज द्वारा बताये ध्यान का प्रथम अर्थ पूर्ण हो जाता है कि "मैंने आन्तरिक सत्संग बताया है, इसलिए कि दृष्टि अन्तर्मुखी हो जाये और मन की गति अन्तर्मुखी रहकर ऊर्ध्वमुखी हो जाये।" इसका बड़ा लाभ हमें आध्यात्मिक क्षेत्र में यह मिलता है। कि तब से बाह्य अर्थात् भौतिक बातों का प्रभाव अन्तर में पहुंचना बन्द हो जाता है। आगे चलकर एक दिन ऐसा भी आता है कि अन्तर और बाह्य दोनों के मुख एक दूसरे से भिन्न दिशा पा जाते हैं। मन की ऊर्ध्वमुखी गति, ईश्वरीय शक्ति का सम्बन्ध पाकर, ईश्वर की खोज में साक्षात्कार पाने की सहज-राह पकड़ लेती है और मन की अधोमुखी-वृत्ति भौतिक कर्तव्यों का यथोचित पालन करने में तत्पर रहती हैं। एक अद्भुत दशा यह भी हो जाती है कि अधोमुखी वृत्ति शरीर व माइन्ड को सहारा देती है और ऊर्ध्वमुखी वृत्ति ध्यान में डूबी हुई ईश्वर की खोज की दिशा में अग्रसर हो जाती है।
Website: santkasturi.com/
/ kasturi.sandesh.33
For any type of sahaj marg query please contact us at : santkasturi.com...
#god #spirituality #meditation #srcm #sahajmarg