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राजस्थान की जोधपुर जिले की बिलाड़ा तहसील में एक छोटा सा गांव है रावणियां | अब इस गांव का नाम गांव की प्रख्यात सुपुत्री बाला सती रूपकंवरजी के सम्मान में रूप नगर रख दिया गया | विभिन्न जातियों व समुदायियों के निवासियों वाला यह गांव कभी जोधपुर राज्य के अधीन खालसा गांव था | इसी गांव में श्री लालसिंह जी की धर्मपत्नी जड़ावकँवर की कोख से 16.08.1903 को एक बालिका का जन्म हुआ यह उनकी दूसरी पुत्री थी | बालिका के सुन्दर मुखमंडल को देख नाम रखा गया रूपकंवर | सोमवार कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मंगलमयी वेला में जन्मी रूपकंवर की जन्म कुंडली देखकर गांव के ज्योतिषियों ने परिजनों को पहले ही बता था कि बालिका आगे चलकर अध्यात्मिक प्रकाश पुंज के रूप में प्रतिष्ठित होगी | जिसकी झलक उनके बचपन में ही दिखने लगी वे अपने बाबोसा (पिता के बड़े भाई) श्री चन्द्रसिंह जी जो धार्मिक प्रवृति के थे के साथ पूजा पाठ में ज्यादा समय व्यतीत करने लगी |
बाला सती रूपकंवरजी की बड़ी बहन सायरकँवर का विवाह बाला गांव निवासी जुझारसिंह जो जोधपुर महाराजा की जोधपुर लांसर्स के रसाले में घुड़सवार थे के साथ हुई थी जिसका प्लेग रोग के चलते देहांत हो गया था | तदुपरांत परिजनों ने रूपकंवर का जुझारसिंह के साथ विवाह करने का निश्चय किया गया | और 10.05.1919 को रूपकंवर का विवाह जुझारसिंह के साथ कर दिया गया पर विवाह के पंद्रह दिनों बाद ही 25.05.1919 को बहुत तेज ज्वर के चलते जुझारसिंह जी का आकस्मिक निधन हो गया और रूपकंवर बाल विधवा हो गई | पर इस शोकजन्य घटना के उपरांत भी रूपकंवर पर इस दुखान्तिका का शून्य प्रभाव ही रहा वे इस घटना को स्वयं की क्षति या शोक नहीं मानकर केवल असम्बन्ध साक्षी की तरह ही देखती रही बाद के वर्षों में उन्होंने अपने व्यवहार व भावनाओं को इस तरह उद्दृत किया कि - जिस व्यक्ति का मैंने ठीक ढंग से चेहरा ही नहीं देखा उसके लिए दुख कैसे होता |
बाल विधवा होने के पश्चात् बाला सती रूपकंवरजी जालिम सिंह के पुत्र मानसिंह से विशेष स्नेह रखती थी , मानसिंह की माता का भी कम उम्र में ही निधन हो गया था सो उसका लालन पालन रूपकँवर ने ही अपने पुत्र की भांति ही किया था और वे उन दोनों में माता व पुत्र का प्रगाढ़ सम्बन्ध बन गया था | पर 34 वर्ष की आयु में मानसिंह का स्वास्थ्य अचानक बिगड़ गया और उन्होंने भी अपनी देह त्याग दी | इस बार रूपकंवर को अत्यधिक आघात लगा और उदासीन भाव लिए बिना रोये धोये बैठी रही | मानसिंह के अंतिम संस्कार की तैयारियां चल रही थी कि रूपकंवर जी ने अचानक घुंघुट उतार फैंका , उनके शरीर में कम्पन हो रहा था और चेहरे पर अचानक औजस चमकाने लगा और मुखमंडल पर गहरी शांति व दिव्य कांती नजर आने लगी | और उन्होंने घोषणा करते हुए कहा कि -“म्हारो टाबर एकलौ जावै है,महूँ भी साथै जावूंला | म्हने चिता माथै साथ बैठबा दो | अग्नि आप सूं आप परगट हो जावै ला | जे नीं हुई तो महूँ पाछी घरे जाऊं परी |” कि मेरा पुत्र अकेला जा रहा है मैं भी इसके जावुंगी मुझे उसकी चिता पर बैठने दो | अग्नि अपने आप प्रकट हो जाएगी यदि नहीं हुई मैं अपने आप वापस घर चली जाउंगी |
गांव वालों ने उनके इस प्रकार सती होने के संकल्प को रोकने की कोशिश की पर सभी विफल रही तभी रास्ते में उन्हें रोकते हुए एक शराब पिए व्यक्ति का उनसे स्पर्श हो गया और उनकी सतीत्व भावना जाती रही और उन्होंने अपने घर आकर आँगन में सती होने एक और प्रयास किया पर उनका प्रयास रोक दिया गया | और उसके बाद उन्होंने अन्न जल का त्याग कर दिया |
15 फरवरी 1943 के बाद रूपकंवर ने अन्न जल ग्रहण नहीं किया,परिजनों के अत्यधिक आग्रह पर उन्होंने दो ग्रास निगलने की कोशिश की पर उसे भी उन्होंने तुरंत ही वमन कर बाहर कर दिया | इसका अंतिम परिणाम यह हुआ कि जिस दिन से बाला सती रूपकंवरजी में सत जागृत हुआ उस दिन से लेकर अपने शेष सम्पूर्ण जीवन-काल के लिए अंत तक उनका सदा के लिए खान-पान छुट गया | और उनके पास भक्तों का तांता रहने लगा लोग उन्हें बाला सती बापजी के नाम से संबोधित करने लगे | बापजी अपने भक्तों के दुखों व रोगों का भी निवारण लगी और एक दिन एक भक्त उनके पास आया जिसे केंसर था ,बापजी ने उसे रोग मुक्त करने हेतु उसका केंसर अपने ऊपर ले लिया और इस तरह खुद केंसर रोगी होकर 15.11.1986 को बापजी यह सांसारिक देह त्याग कर ब्रह्मलीन हो गयी |
आज हर वर्ष बिलाड़ा तहसील के बाला गांव में कार्तिक मास की पूर्णिमा को बाला सती रूपकंवरजी बापजी की समाधी पर विशाल मेला लगता है | जिसमे दूर-दूर से हजारों श्रद्धालु उनकी समाधी पर मत्था टेकने आते है | उनके आश्रम जिसे बाला दामनवाड़ी आश्रम कहते है में आने वाले सभी भक्तो के लिए प्रसाद की व्यवस्था होती है | अपने जीवन काल में भी बापजी रूपकंवर ने उनसे मिलने आने वाले भक्तो को कभी बिना भोजन किए नहीं जाने दिया था |