बर्बरीक खाटू श्याम मंत्र 10

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बर्बरीक, जिन्हें खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है,यद्यपि महाभारत में उनका यह नाम कहीं दिखाई नहीं देता] महाभारत के एक महान योद्धा थे। वे घटोत्कच और अहिलावती (मोरवी) के सबसे बड़े पुत्र थे। उनके अन्य भाई अंजनपर्व और मेघवर्ण का उल्लेख भी महाभारत में दिया गया है। बर्बरीक को उनकी माता मोरवी ने यही सिखाया था कि सदा ही पराजित पक्ष की तरफ से युद्ध करना और वे इसी सिद्धान्त पर लड़ते भी रहे। बर्बरीक को कुछ ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त थीं, जिनके बल से पलक झपते ही महाभारत के युद्ध में भाग लेनेवाले समस्त वीरों को मार सकते थे।इसे लगता है कि वे अर्जुन, कर्ण और भीष्म पितामह से भी बड़े योद्धा रहेंगे जब वे युद्ध में सहायता देने आये, तब इनकी शक्ति का परिचय प्राप्त कर श्रीकृष्ण ने इनसे इनके शीश का दान मांग लिया था। इस दोरान पांडवो से और कृष्ण से क्या मंत्रणा हुई इसका इतिहास अज्ञात है। महान बर्बरीक युद्ध को क्यों देखना चाहते थे यह भी अज्ञात ही प्रतीत होता है।वे चाहते तो प्रतीक्षा करतेमहाभारत युद्ध की समाप्ति तक युद्ध देखने की इनकी कामना श्रीकृष्ण के वर से पूर्ण हुई और इनका कटा सिर अन्त तक युद्ध देखता और वीरगर्जन करता रहा। इन्हें तीन बाण धारी भी कहा जाता है, क्योंकि इनके पास ऐसी धनुर्धारी विद्या थी जिससे की महाभारत की पूरी युद्ध मात्र तीन तीरों में ही समाप्त हो जाए।
कुछ कहानियों के अनुसार बर्बरीक सूर्यवर्चा नामक यक्ष थे, जिनका पुनर्जन्म एक मानव के रूप में हुआ था। बर्बरीक भीमसेन और हिडिम्बा के पोते और घटोत्कच और मौरवी के पुत्र थे। [1] इनके गुरु श्री कृष्ण थे और बर्बरीक भगवान शिव के परम भक्त थे।
बर्बरीक का सिर जिसकी पूजा खाटूश्याम के रूप में की जाती है।
बर्बरीक की कथा
स्कन्दपुराण के माहेशवरखण्ड-कुमारिकाखण्ड[2] में घटोत्कच विवाह और उनके पुत्र बर्बरीक के बारे में बहुत विस्तार से बताया गया है। बर्बरीक के बारे में किसी और पुराण या शास्त्र में कोई ज़िक्र नहीं है।
शौनक ऋषि जी के पूछने पर उग्रश्रवा ( सूत् जी ) बताते हैं कि जब घटोत्कच अपनी माता हिडिंबा देवी के कहने पर पाण्डवों से मिलने के लिए इन्द्रप्रस्थ आये। वहाँ उन्हें श्री कृष्ण जी सहित सभी पाण्डवों से मिलना हुआ। तब श्री कृष्ण ने सबको बताया कि मुरदैत्य की कन्या मौरवी ( कामकटंकटा ) का विवाह घटोत्कच से होगा। कुछ समय उपरांत ऐसा ही हुआ। विवाह होने के पश्चात घटोत्कच और उनकी पत्नी के यहाँ एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया। जन्म लेते ही वे बालक युवावस्था को प्राप्त हो गया। तब घटोत्कच ने बालक को छाती से लगाकर कहा - बेटा! तुम्हारे केश बर्बराकार ( घुँघराले ) हैं। इसलिए तुम्हारा नाम ‘बर्बरीक’ होगा। बर्बरीक को लेकर पिता घटोत्कच द्वारिका श्री कृष्ण से मिलने पहुँचे। तब बर्बरीक ने श्री कृष्ण जी से कहा - आर्यदेव माधव ! मैं आप को प्रणाम करता हूँ और ये पूछता हूँ कि संसार में उत्पन्न हुए जीव का कल्याण किस साधन से होता है। तब श्री कृष्ण ने बर्बरीक से कहा - तुम पहले बल प्राप्त करने के लिए देवियों की आराधना करो। तुम्हारा ह्रदय बहुत ही सुन्दर है इसलिए आज से तुम्हारा एक और नाम ‘सुहृदय’ भी होगा।
तब बर्बरीक ने महीसागरसंगम तीर्थ में जा कर नौ दुर्गाओं की अराधना की। तीन वर्षों तक बर्बरीक ने देवियों की अराधना की। तब देवियों ने बर्बरीक की पूजा से संतुष्ट होकर प्रत्यक्ष दर्शन दिया और साथ में वे दुर्लभ बल प्रदान किया जो तीनों लोकों में किसी और के पास पहले नहीं था। देवियों ने बर्बरीक को एक नया नाम ‘चण्डिल’ भी दिया और आशीर्वाद दिया कि वे समस्त विश्व में प्रसिद्ध और पूजनीय होगा।

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