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साईं बाबा के जीवन से प्राप्त वृत्तांतों के अनुसार, उन्होंने स्वयं की प्राप्ति पर बहुत जोर दिया, साथ ही नाशवान चीजों के प्रति प्रेम की अवधारणा की आलोचना की। उनकी शिक्षाएँ एक नैतिक संहिता के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं जो प्रेम, क्षमा, दान, दूसरों की मदद, संतोष, आंतरिक शांति और भगवान और गुरु के प्रति समर्पण के गुणों का समर्थन करती थी। ये शिक्षाएँ आध्यात्मिक संतुष्टि का जीवन जीने का प्रयास करने वालों के लिए मूल्यवान मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।
साईं बाबा ने धर्म या जाति के आधार पर भेदभाव की निंदा की। उनके हिंदू और मुस्लिम दोनों अनुयायी थे, लेकिन जब उन पर अपनी धार्मिक संबद्धता के बारे में दबाव डाला गया, तो उन्होंने खुद को एक के साथ पहचानने से इनकार कर दिया और दूसरे को छोड़ दिया। [4] उनकी शिक्षाओं में हिंदू धर्म और इस्लाम के तत्वों का मिश्रण था: उन्होंने जिस मस्जिद में रहते थे, उसे हिंदू नाम द्वारकामाई दिया, [5] हिंदू और मुस्लिम दोनों रीति-रिवाजों का अभ्यास किया, और उन शब्दों और आंकड़ों का उपयोग करना सिखाया जो दोनों परंपराओं से लिए गए थे। उनकी मृत्यु के तुरंत बाद लिखी गई जीवनी, श्री साईं सच्चरित्र के अनुसार, उनके हिंदू भक्त उन्हें हिंदू देवता दत्तात्रेय का अवतार मानते थे। [6
जीवन परिचय ----
शिरडी साईं बाबा के बारे में अधिकांश जानकारी हेमाडपंत नामक एक भक्त (जिन्हें अन्नासाहेब दाभोलकर / गोविंद रघुनाथ के नाम से भी जाना जाता है) द्वारा १९२९ में मराठी में लिखी गई श्री साईं सच्चरित्र नामक पुस्तक से ली गई है। [8] साईं बाबा का जन्म कब और कहाँ हुआ था एवं उनके माता-पिता कौन थे ये बातें अज्ञात हैं। किसी दस्तावेज से इसका प्रामाणिक पता नहीं चलता है। स्वयं शिरडी साईं ने इसके बारे में कुछ नहीं बताया है। श्री साईं बाबा के जीवनकाल में लिखे गए संतकवि दासगणु महाराजकृत भक्तिलीलामृत ( वर्ष १९०६ शके १८२८ ) और संतकथामृत ( वर्ष १९०८ शके १८३० ) इन दोनों ग्रंथोमें तथा समकालीन महत्वपूर्ण दस्तावेजोंमें बाबा के जन्म स्थानके बारेमें कोई जानकारी नहीं है । साईभक्तोके दृष्टीसे प्रमाण ग्रंथ श्री साईसच्चरितमें, श्री साई बाबा के जन्मस्थान का कोई जिक्र नहीं है । श्री साईबाबा के जन्मस्थान का प्रथम वर्णन वर्ष १९२५ में प्रकाशित श्री साईलीला वर्ष तृतीय चैत्र शके १८४७ के प्रथम अंक में मिलता है[9], परन्तु भक्त म्हालसापति द्वारा स्वयं बताये गये बाबा के अनुभवोमें इस विषय का वर्णन नहीं किया गया है । दासगणूकृत भक्तिलीलामृत के अलावा संतकथामृत का पाठ बाबा के समक्ष नहीं किया जाता था । भक्तिसारामृत ग्रंथ, जिसमें बाबा के गुरू और बाबा के जन्मकी कथा है, वो भी श्री साईं के महानिर्वाण के बाद लिखा गया था । श्री साईसच्चरित ग्रंथ भी अध्याय ५३ ओवी १७९ अनुसार वर्ष १९२२ से १९२९ इस कालखंड के दौरान यानी बाबा के महासमाधीके बादही लिखा गया है ।[10] साईं के कथित जन्मस्थान के खोजकर्ता वि.बी.खेर का दावा है कि गोपालराव महाराज, जिन्हें दासगणू महाराज बाबा का गुरु कहते हैं, वो बाबा के गुरु नहीं हो सकते । दासगणू महाराज की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाते हुए उन्होंने द इटरनल साक्षी इस प्रकरणमें बाबा के गुरु सूफी फकीर रहे होंगे यह बात लिखी है ।[11] श्रीपादवल्लभचरित्रामृत में लिखा है कि बाबा का जन्म पाथरी में हुआ था, लेकिन बाबा के जन्मस्थान के रूप में पाथरी का उल्लेख पेहली बार वर्ष 1925 में साईलीला पत्रिका के माध्यम से ही किया गया था । भक्तिसारामृतकार दासगणु महाराज और महाराज के अनुभवोके लेखक काकासाहेब दीक्षित जिन्होंने साईं सच्चरित्रका उपोद्धातभी लिखा था, इन दोनोद्वारा लिखे गये वाङ्मयमें श्री साईंबाबा का जन्म पाथरी के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था यह बात बाबाके महानिर्वाणपश्चात लिखी गई है । आगे इस वाङ्मयसे प्रेरित लेखनही अनेक लेखको द्वारा किया गया है । मगर १९२५ से पेहले बाबाके जन्मस्थान के विषयमें कोईभी जानकारी प्रकाशित नही हुई । जून २०१४ में द्वारका और ज्योतिष पीठके शंकराचार्य जगद्गुरू स्वामी स्वरूपानंद सरस्वतीने साईबाबाकी पूजा नही करनी चाहिए यह बयान साझा किया ।[12] इस बयानसे प्रेरित होकर बाबा चांद मिया थे ऐसी असत्य एवं तथ्यहीन बाते केहकर बाबाकी छवि धुमिल करनेका प्रयास आज भी जारी है । ऐसी अनेक अफवाओसे आहत होते हुए भी, सकलमतोका आदर करनेवाला साईभक्त आज श्रद्धा और सबुरी लेकर शांती के पथ पर अग्रेसर है । श्री साई के समकालीन सरकारी दस्तावेजों में श्री साईबाबाका वर्णन अवलियाके रूपमें किया गया है । उस समय, खुफिया एजेंसी और अधिकारियोंद्वारा लिखी रिपोर्ट[13] एवं आदेशों में स्पष्ट किया था कि श्री साईं बाबा का मूल अज्ञात है । अतः बाबा के जन्म के बारे में कहीं भी कोई विश्वसनीय जानकारी नहीं मिल सकती है ये अधिकृत जानकारी " जन्म बाबांचा कोण्या देशी । अथवा कोण्या पवित्र वंशी । कोण्या मातापितरांच्या कुशी । हे कोणासी ठावे ना ।। " इस मराठी मूल श्री साईसच्चरित के अध्याय 4 ओवी 113 में बताई गयी है ।