Bhagavad Geeta Shlok 21 & 22 - In Between Both Armies

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Bhakti Hridya

Bhakti Hridya

3 ай бұрын

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सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥21॥
यावदेतानिरीक्षेऽहं योद्धकामानवस्थितान्।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥22॥
आज हम श्रीमद् भागवत गीता के श्लोक इक्कीस तथा बाईस से प्रारंभ करेंगे ॥
अर्जुनः उवाच - अर्जुन ने कहा; सेन्योः - सेनाओं के; उभयोः - बीच में; रथम् - रथ को; स्थाप्य - कृप्या खड़ा करें;
मे - मेरे; अच्युत - हे अच्युत; यावत् - जब तक; एतान् - इन सब; निरीक्षे - देख सकूँ; अहम् - मैं;
योद्धु-कामान् - युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवस्थितान् - युद्धभूमि में एकत्र; कैः - किन किन से; मया - मेरे द्वारा;
सः - एक साथ; योद्धव्यम् - युद्ध किया जाना है; अस्मिन् - इस; रन - संघर्ष, झगड़ा के; समुद्यमे - उद्यम या प्रयास में |
श्री कृष्ण साक्षात भगवान हैं, परंतु फिर भी वे निस्वार्थ अपने मित्र कि सेवा में लगे हुए थे.
किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही, क्यूंकि प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रियों के स्वामी श्रीभगवान् हृषीकेश हैं
अर्जुन ने कहा - हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओ के बीच ले चलें जिससे यहां उपस्थित युद्ध की अभिलाषा रखने वालों और शास्त्र की इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ
यहाँ श्री कृष्ण को अच्युत कह कर सम्बोधित किया गया है.
अच्युत का मतलब है जो निस्वार्थ स्वयं के मन से कोई कार्य करता है.
श्री कृष्ण साक्षात भगवान हैं, परंतु फिर भी वे निस्वार्थ अपने मित्र कि सेवा में लगे हुए थे.
सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया,
किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही, क्यूंकि प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रियों के स्वामी श्रीभगवान् हृषीकेश हैं.
भगवान् का शुद्ध भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बन्धु-बान्धवों से युद्ध करने कि तनिक भी इच्छा न थी,
किन्तु दुर्योधन द्वारा शान्तिपूर्ण समझौता ना करने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा |
अतः वह यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक था कि युद्धभूमि में कौन-कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं
हालाँकि युद्धभूमि में शान्ति-प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से देखना चाह रहा था
और यह देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं |
श्लोक इक्कीस एवम बाईस का सार ये है की
श्री कृष्ण जगत स्वामी हैं, अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है |
भगवान् तथा उनके भक्तो का सम्बन्ध अत्यन्त मधुर एवं दिव्य होता है,किन्तु जब वे देखते हैं की उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है तो उन्हें दिव्य आनन्द मिलता है यद्यपि वे समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं |

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