।।धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा जी।। ।।हाज़िर नाज़िर ज़िंदा राम जी।। ।।परम संतों के न्यारे राम जी।। ।।धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा जी।। ।। निंदा /आलोचना को पचाना सीखें।। अपनी निन्दा, आलोचना, उपहास और अपमान को सुनकर सहन कर लेना उच्च आध्यात्मिक अवस्था है। निंदा को वही सहन कर सकते हैं जिनका मस्तिष्क बहुत विशाल हो, शान्त हो और जिनमें बहुत सहनशक्ति हो। महाभारत में कहा गया है कि - *जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव, येषां प्रसादात्सुविचक्षणोऽहम्।* *यदा-यदा मे विकृतिं लभन्ते, तदा-तदा मां प्रतिबोधयन्ति ।।* अर्थात मेरे शत्रु सदा जीवित रहें जिनकी कृपा से मैं बहुत ज्ञानवान हो गया हूँ। जब-जब वे मेरी त्रुटियाँ देखते हैं, तब-तब मुझे जगाते हैं। कहने का तात्पर्य हैं कि आलोचना और निन्दा को सहन करने का एक सबसे श्रेष्ठ तरीका यह है कि, अपनी निंदा सुनने पर यह विचार करें कि ये जो मेरी निंदा हो रही है उसमें कुछ भी बातें सत्य हैं या मिथ्या? यदि ये बातें सत्य हैं तो सत्य का क्या बुरा मानना, क्योंकि सत्य को तो सदा स्वीकार करना ही चाहिए। यदि कही हुई बातें असत्य हैं तो उनका क्या बुरा मानना? क्योंकि वे तो हैं ही असत्य। असत्य बात का क्या बुरा मानना? *आज का दिन शुभ मंगलमय हो।*