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छाप तिलक सब छीनी रे १४वीं सदी के सूफी संत अमीर खुसरो जी की एक कविता है जिसे अक्सर क़व्वाली की तरह गाया जाता है। इसमें अपने इष्ट के प्रति समर्पण है कि जो भी अपने इष्ट की शरण मे जाता है, उसका अपान (अपनी पहचान )स्वतः ही मिट जाता है और वो अपने ही इष्ट के रंग में रंग जाता है।
गुरुदेव विनोद अग्रवाल जी की मधुर वाणी में ये भाव अपने आप मे ही बहुत कुछ कह जाता है तो क्यों न हम भी इस भाव मे अपने आप को खोकर , बहुत कुछ पाने की चेष्टा करें।
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