Рет қаралды 2,420
Class 8.25 summary
सूत्र आठ स-दसद्-वेद्ये में हमने वेदनीय कर्म के दो भेद - साता और असाता वेदनीय को जाना
‘वेद्य’ अर्थात् वेदन के योग्य
जिसके माध्यम से हमें वेदना यानि ज्ञान और अनुभव होता है
यहाँ सत् का अर्थ सुख या साता है
और असत् इसका विपरीत दुःख या असाता है
एकांतत: सुख देने का भाव साता वेदनीय कर्म के माध्यम से होता है
इसका उदय जीव को फलानुभूति कराता है
उस समय उसे परिस्थिति के अनुरूप सुख मिलता है
जैसे देव गति में लम्बे समय तक शारीरिक और मानसिक सुख
लेकिन मनुष्य भव में मिले सुख में पद-पद पर दुःख की आशंकाएँ बनी रहती हैं
साता वेदनीय कर्म के उदय से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारों की अनुकूलता रहती है
जो भी जीव सुखी होते हैं
वे इसके उदय से ही सुखी होते हैं
यह हमें हर तरीके के सुख देता है जैसे
शारीरिक और मानसिक सुख
चिन्ता, भय से निश्चिन्तता
परिवार में अनुकूलता, प्रेम
व्यापार आदि में आशंकाएँ रहित होना आदि
हमने जाना था कि ज्ञानावरणादि आवरण कर्मों के उदय में
हमारे ज्ञानादि अनुजीवी गुणों का घात होता है
इनके क्षयोपशम में आवरण कुछ हल्के होते हैं
और कुछ गुण प्रगट होते हैं
लेकिन यहाँ साता वेदनीय कर्म के उदय से ही सुख होता है
वेदनीय कर्म का उदय होता है, क्षयोपशम नहीं
असाता वेदनीय कर्म के उदय में तरह-तरह के दु:खों की प्राप्ति होती है
हमें कर्मोदय के अनुसार ही दु:ख मिलते हैं
जैसे शारीरिक, मानसिक दुःख
परिवार से होने वाले दुःख आदि
संसार में सभी जीव मुख्यतः इन्हीं कर्मजन्य सुख-दुःख का संवेदन करते हैं
वे सुख की प्राप्ति के लिए दौड़ते हैं
और दुःख से बचने का उपाय करते हैं
उसके द्वारा किये बाहरी उपाय
जैसे कोई विद्या, मंत्र आदि तभी सार्थक होते हैं
जब भीतर साता वेदनीय कर्म का उदय होता है
कर्मोदय के कारण वही उपाय किसी को सुख और किसी को दुःख दे सकते हैं
जब हम व्यवहार में पूछते हैं - साता है?
या सर्वे भवंतु सुखिनः में सब जीवों के सुख की कामना करते हैं
तो यह सुख वास्तव में साता वेदनीय के उदय से उत्पन्न सुख होता है
हम इन कर्मों के कार्य को देखकर
इनके स्वभाव का ज्ञान कर सकते हैं
इनके काम भी नाम के अनुरूप होते हैं
साता कर्म से हम साता और असाता कर्म से असाता महसूस करते हैं
हमने जाना था कि सुख और दुःख की अनुभूति मोह के साथ होती है
बिना मोहनीय के साथ के वेदनीय काम नहीं करता
सूत्र नौ
दर्शन-चारित्र-मोहनीया-कषाय-कषायवेदनीयाख्यास्-त्रि-द्वि-नव-
षोडशभेदाः सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-तदुभयान्य-कषाय-कषायौ हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानु-बन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकश: क्रोध मान-माया-लोभाः में हमने मोहनीय कर्म की अष्टाविंशति अर्थात अट्ठाईस कर्म प्रकृतियों को जाना
मोहनीय कर्म आत्मा को मोहित करता है
आत्मा के श्रद्धा और चारित्र गुणों का घात करता है
और मोह पैदाकर अलग-अलग विकृति पैदा करता है
‘दर्शनचारित्रमोहनीया’ में इसके दो भेद बताये
पहला दर्शन मोहनीय हमारे दर्शन अर्थात् श्रद्धा, आस्था को मोहित कर विपरीत करता है
सही श्रद्धान नहीं होने देता
दूसरा चारित्र मोहनीय हमारे अन्दर चारित्र नहीं होने देता
हमें सकषायी बनाए रखता है
चारित्र मोहनीय कर्म के अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय दो भेद होते हैं
इनका पूरा नाम अकषाय वेदनीय चारित्र मोहनीय कर्म और कषाय वेदनीय चारित्र मोहनीय कर्म होता है
त्रि-द्वि-नव-षोडशभेदा: के अनुसार
दर्शन मोहनीय के तीन
चारित्र मोहनीय के दो
अकषाय वेदनीय के नौ और
कषाय वेदनीय के सोलह भेद होते हैं
दर्शन मोहनीय कर्म के तीन भेद होते हैं - सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यग्मिथ्यात्व को यहाँ तदुभय लिखा है
अर्थात् यह मिश्र भाव है जिसमें सम्यक्त्व भी है और मिथ्यात्व भी है
Tattwarthsutra Website: ttv.arham.yoga/