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मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक विकास के लिए योग का अभ्यास करना अत्यन्त आवश्यक है, मगर योग का अभ्यास बिना त्याग के नहीं किया जा सकता है।
त्याग वैराग्य का परिणाम है। योग के अभ्यास से मनुष्य की मानसिक शक्ति बढ़ती है।
अपनी इच्छाओं को जानबूझ कर रोकने से इच्छाओं की शक्ति संचित हो जाती हैं। फिर उस शक्ति से मनुष्य यथोचित जो कुछ भी करना चाहे कर सकता है।
समाज का उपकार मानसिक शक्ति के संचय के बिना सम्भव नहीं है।
मानसिक शक्ति का संचय योग के अभ्यास के द्वारा होता है। इससे निम्न कोटि की वासनाए रुक जाती हैं. फिर उच्च कोटि की वासनाओं का विकास होता है।
ये वासनाए शारीरिक सुख की न होकर मानसिक सन्तोष सम्बन्धी होती हैं।
ये योग के अभ्यास में सहायक होती हैं। साधक का ध्येय जब तत्त्वज्ञान प्राप्ति हो जाता है, तब वह साधक को शाश्वत शांति प्रदान करता है।
इसलिए साधक को न केवल भोगों का त्याग करना पड़ता है, बल्कि त्याग का भी त्याग करना पड़ता है। तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए साधक को अभ्यास में अत्यन्त कठोरता नहीं
बरतनी चाहिए।
किसी भी प्रकार की अति कठोरता साधक में अभिमान की वृद्धि करती है, इसलिए साधक को मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। जब तक भगवानू गौतम बुद्ध कठोर योग का अभ्यास करते रहे,तब तक उन्हें तत्वज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई।
जब उन्होंने कठोर अभ्यास को छोड़ दिया तथा मध्यम मार्ग
अपना लिया, तब उन्हें तत्तवज्ञान की प्राप्ति हो गई।
साधक का ध्येय आध्यात्मिक शांति प्राप्त करना अथवा निर्वाण प्राप्त करना होता है।
ॐ शान्ति विश्वम।।