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Ramesh Kalia, a dreaded gangster of Lucknow in the later 90s, had become a nuisance for the police for a long time. Things came to a head when Samajwadi Party's MLC Ajit Singh was gunned down while celebrating his birthday in a hotel at Unnao in September, 2004. An FIR was registered against Kalia, among others. Then the police planned to corner and shoot him down. How did they do that and did they succeed?
हिंदुस्तान की पुलिस के इतिहास में ऐसे मौके और ऐसे मंज़र बहुत कम आए हैं जब पूरी की पूरी पुलिस टीम को बाराती बनना पड़ा. ना सिर्फ बाराती बनना पड़ा बल्कि बारातियों की तरह नाचना भी पड़ा. और ये सब सिर्फ इसलिए ताकि एक ऐसे कुख्यात गैंगस्टर का एनकाउंटर किया सके, जिसने सीधे पुलिस को ही चुनौती दे दी थी. एनकाउंटर की ये कहानी यूपी के कुख्यात गैंगस्टर रमेश कालिया की है, जिसने कई सालों तक पूरे यूपी में आतंक मचा रखा था. रमेश कालिया के शूटआउट के लिए खास तौर पर एनकाउंटर स्पेशलिस्ट की टीम बना गई थी.
लखनऊ का रायबरेली रोड. विदाई के बाद दो-तीन कारों में बाराती लौट रहे थे. मगर अचानक दूल्हा-दुल्हन की अगुवाई में सभी बाराती गाड़ियों से उतर कर एक मकान की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं. दुल्हन बिल्कुल प्रॉफेशनल अंदाज़ में कमर से रिवाल्वर निकालती है और दूल्हा अपनी जुराब से. फिर वे सब मकान में दाखिल होने के साथ ही बाराती मकान में मौजूद गुंडों को ललकारते हैं और फिर दोनों तरफ़ से फायरिंग शुरू हो जाती है. बारातियों के हमले से घबराए मकान में छिपे कुछ लोग भाग निकलते हैं और कुछ गोली खाकर ढेर हो जाते हैं. एक आध पुलिसवाले भी गोली लगने से घायल हो जाते हैं. फिर शूटआउट के बाद वहां खामोशी पसर जाती है.
दरअसल, बाराती बनकर मकान पर धावा बोलने वाले कोई और नहीं बल्कि यूपी पलिस के अफसर थे, जो भेष बदलकर उस वक्त के कुख्यात गैंगस्टर रमेश कालिया का शिकार करने आए थे. और वे अपने मकसद में कामयाब भी हो गए. ये वारदात थी फरवरी 2005 की. रमेश कालिया एक ऐसा गैंगस्टर था, जिसके आतंक से खुद यूपी की राजधानी लखलऊ भी कांपती थी. उसे कई सफेदपोश लोगों का समर्थन भी हासिल था. लिहाजा वो आसानी से पुलिस के हाथ आने वाला नहीं था.
ये वो दौर था, जब यूपी में श्रीप्रकाश शुक्ला के शूटआउट के बाद गुंडे बदमाश नए सिरे से पनप रहे थे. लेकिन 2003 के आते-आते यूपी में माफियाराज एक बार फिर से उरूज पर था. पूरब में मुख्तार अंसारी और ब्रजेश सिंह की बादशाहत कायम हो गई थी, तो लखनऊ में अजीत सिंह और अखिलेश प्रताप सिंह की तूती बोलती थी. रेलवे और पीडब्ल्यूडी के ठेकों को लेकर एक बार फिर बर्चस्व की लड़ाई तेज़ हो गई थी. माफियाओं की इसी जंग में उभरा एक नया नाम रमेश कालिया.
रमेश कालिया वो नाम था जिसे सुनते ही ठेकेदारों और बिल्डरों की रुह कांपने लगती थी. दरअसल, छोटी-मोटी वारदातों को अंजाम देने वाले रमेश ने साल 2002 और 2003 में अचानक जैसे गियर ही बदल लिया था. अब उसकी नज़र सिर्फ़ ज़मीनों पर थी. ख़ास उन ज़मीनों पर जिनमें कोई लफड़ा होता था. वो ऐसी ज़मीनों पर कब्जा करता और रास्ते में जो भी आता, उसे ढेर कर देता.
28 अक्टूबर 2002, बाराबंकी
शाम के 5 बजे थे. सपा नेता रघुनाथ यादव अपने दो साथियों के साथ बाराबंकी से लौट रहे थे. जब उनकी सफेद रंग की एंबेंसडर कार सफेदाबाद बाजार के पास पहुंची, तो ड्राइवर सरवन की नज़र एक टाटा सूमो पर पड़ी. वो गाड़ी उनका पीछा कर रही थी. उसने यादव से कहा कि एक गाड़ी उनका पीछा कर रही है. लेकिन यादव ने उसकी बात को हल्के में लिया और उसे आगे बढ़ने के लिए कहा. और तभी टाटा सूमो, एंबेसडर को ओवरटेक कर लेती है. जबरदस्ती कार सड़क के किनारे रुकवाई जाती है. सूमो से चार लोग निकलते हैं. जिनके हाथों में पिस्तौल और रायफल है. और अगले ही पल वे कार में बैठे नेताजी रघुनाथ यादव पर फायरिंग शुरू कर देते हैं. बीडीसी मेंबर रघुनाथ समेत दो लोग मारे जाते हैं. जबकि ड्राइवर और एक शख्स भाग निकलता है. बदमाश फिर सूमो में सवार होकर फ़रार हो जाते हैं.
ये वो वक्त था, जब यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. तब मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, प्रदेश की काननू व्यवस्था. खासकर राजधानी लखनऊ की. क्योंकि कालिया ने उन दिनों पूरे उत्तर प्रदेश में अपना आतंक पैदा कर दिया था और तभी मुलायम सिंह यादव ने एक अहम फैसला लिया. उन्होंने डीजीपी के कहने पर मुजफ्फरनगर के तेज तर्रार एसएसपी नवनीत सिकेरा को लखनऊ बुलाने का फरमान जारी कर दिया.
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