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⚡ आचार्य प्रशांत कौन हैं?
अध्यात्म की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत वेदांत मर्मज्ञ हैं, जिन्होंने जनसामान्य में भगवद्गीता, उपनिषदों ऋषियों की बोधवाणी को पुनर्जीवित किया है। उनकी वाणी में आकाश मुखरित होता है।
और सर्वसामान्य की दृष्टि कहेगी कि आचार्य प्रशांत प्रकृति और पशुओं की रक्षा हेतु सक्रिय, युवाओं में प्रकाश तथा ऊर्जा के संचारक, तथा प्रत्येक जीव की भौतिक स्वतंत्रता व आत्यंतिक मुक्ति के लिए संघर्षरत एक ज़मीनी संघर्षकर्ता हैं।
संक्षेप में कहें तो,
आचार्य प्रशांत उस बिंदु का नाम हैं जहाँ धरती आकाश से मिलती है!
आइ.आइ.टी. दिल्ली एवं आइ.आइ.एम अहमदाबाद से शिक्षाप्राप्त आचार्य प्रशांत, एक पूर्व सिविल सेवा अधिकारी भी रह चुके हैं।
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वीडियो जानकारी: शास्त्र कौमुदी, 13.04.2022, ग्रेटर नॉएडा
प्रसंग:
संजय उवाच
तं तथा कृपयाऽविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।
संजय कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने उस प्रकार भाव से आविष्ट और अश्रुपूरित नेत्रों वाले दुखी अर्जुन से कहा
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १)
श्री भगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।
श्रीभगवान ने कहा - "हे अर्जुन, अनार्यों के योग्य, स्वर्गप्राप्ति का विरोधी निन्दाजनक यह मोह तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ है?"
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २)
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।
हे अर्जुन, तुम कायरता को प्राप्त ना हो, यह तुम्हारे योग्य नहीं है।
हे शत्रुतापन अर्जुन, हृदय की इस तुच्छ दुर्बलता को छोड़कर चलो खड़े हो जाओे।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ३)
अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं संख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।
अर्जुन ने कहा - हे शत्रुनाशक कृष्ण, मैं युद्ध में पूजनीय भीष्म देव और द्रोणाचार्य के प्रति बाणों से कैसे युद्ध करूँगा?
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ४)
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्।।
मैं तो महानुभाव गुरुओं को मारकर ना इस लोक में भिक्षान्न भोजन करना बल्कि कल्याण कर मानता हूँ, क्योंकि गुरुओं का वध करके मैं रक्त से सने हुए अर्थ और काम रूपी भोगो को ही तो भोगूँगा।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ५)
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।
फिर हम यह भी तो नहीं जानते हैं कि हम लोगों के लिए श्रेयस्कर क्या है - हम उन्हें जीत लें या वो हमें जीत लें। जिन लोगों को मारकर हम जीना नहीं चाहते, वे ही धृतराष्ट्र के पुत्र सामने खड़े है।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ६)
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
अज्ञान-जनित कायरता के दोष से मेरा स्वभाव ढक गया है और धर्म के विषय में मेरा चित्त मोहित हो गया है। मैं तुमसे पूछता हूँ, जो मेरे लिए कल्याणकर हो वह निश्चय करके बताओ। मैं तुम्हारा शिष्य हूँ अपनी शरण में आये हुए मुझे उपदेश दो।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ७)
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धम् राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।
पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य तथा देवताओं का साम्राज्य पाकर भी मैं ऐसा कोई उपाय नहीं देखता जो मेरी इंद्रियों को सुखाने वाले इस शोक को दूर कर सके।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक ८)
श्री भगवानुवाच
देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक १३)
संगीत: मिलिंद दाते
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