शरणानन्द जी की क्रांतिकारी विचारधारा में साधक को किसी के पदचिन्हों पर नहीं चलना है, अपितु निज विवेक के प्रकाश में रहना है अर्थात स्वाधीनता से अपनी आँखों देखना हैं, अपने पैरों चलना हैं।
वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, इनकी ममता व कामना बनाये रखना सबसे भारी भूल है। इन्हीं से सम्बन्ध जोड़ने का अर्थ है-”है“ से विमुख होना।