INTERPRETATION OF CONSOLIDATING STATUTES

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VATSLA SHARMA

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Күн бұрын

समेकनकारी कानूनों का निर्वचन
INTERPRETATION OF CONSOLIDATING STATUTES
समेकनकारी कानून वह कानून है जो किसी विशिष्ट विषय से संबंधित सभी कानूनी उपबंधों को एक स्थान पर यदि आवश्यक हो तो कुछ संशोधन तथा सुधार करके एक अधिनियम में इकट्ठा करता है। दूसरे शब्दों में जो कानून किसी विशिष्ट विषय से संबंधित कानूनों को आवश्यक संशोधनों के बाद एक स्थान पर एक विधायी अधिनियम में संग्रहित अथवा एकत्रित करता है, उसे समेकनकारी कानून कहते हैं। उदाहरण के लिए माध्यस्थम अधिनियम 1940 (Arbitration Act 1940), भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925(Indian Succession Act 1925) आदि।
किसी समेकनकारी अधिनियम का निर्वचन करते समय उपधारणा यह है कि विधायिका वर्तमान विधि को परिवर्तित करने का आशय नहीं रखती क्योंकि उसने कोई नया विधान पारित नहीं किया है बल्कि किसी विशिष्ट विषय पर अलग-अलग फैले हुए सभी सुसंगत कानूनी उपबंधों को मात्र एक स्थान पर एकत्रित किया है।
यदि किसी समेकनकारी कानून का एक से अधिक युक्तियुक्त एवं सुसंगत अर्थान्वयन संभव हो तो वह अर्थान्वयन मान्य होगा जो वर्तमान विधि में कम से कम हस्तक्षेप करें।
समेकनकारी अधिनियम का निर्वचन युक्तियुक्त (Reasonable) रूप से करना चाहिए। न्यायालयों का विचार यह है कि समेकनकारी अधिनियम का निर्वचन भी अर्थान्वयन के सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए जैसा
अन्य नियमों के साथ किया जा रहा हो। समेकनकारी अधिनियमों के अर्थान्वयन के लिए कोई अलग नियम नहीं है परंतु ऐसे मामलों में जहां न्यायालय के द्वारा पूरी तरीके से प्रयास करने के बाद भी कोई संदिग्धता रह जाती है तो पूर्व के उन निरसित अधिनियमों के निर्वचन के संदर्भों को देखा जा सकता है जिनका समेकन करके यह अधिनियम बनाया गया है।
बेस्विक बनाम बेस्विक (Beswick v. Beswick), 1968 सुप्रीम कोर्ट, के वाद में (न्यायालय ने कहा है कि संसद हमेशा उन लोगों से जिन्होंने समेकनकारी विधेयक तैयार किया है, यह आश्वासन चाहती है कि विधि में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किए गए हैं। न्यायालय ने यह भी कहा है कि समेकन करने का उद्देश्य किसी विशिष्ट विषय पर कानूनी विधि को इकट्ठा करना और उसे प्रभावी बनाना है।
पश्चिम बंगाल राज्य नृपेंद्र नाथ, ए. आई. आर 1966 (State of west Bengal v. Nripendra, AIR 1966 SC) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी विधि के वास्तविक अर्थ को जानने के लिए विधि की पहले की स्थिति या वह बुराई जिसे समाप्त किया जाना था तथा वह प्रक्रिया जिसके द्वारा विधि विकसित की गई से सहायता लिया जाना वैध है।
ए.सी शर्मा बनाम दिल्ली शासन (A. C. Sharma v. Delhi Administration, AIR 1973 SC) के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यह उपधारणा नहीं की जा सकती है कि विधायिका का आशय जो कुछ उसके द्वारा स्पष्ट रूप से घोषित किया गया हो, उससे अलग हटकर वर्तमान विधि को पर्याप्त रूप से परिवर्तित करने का था। न्यायालय ने कानूनों के अर्थान्वयन के संदर्भ में उद्देश्य और कारणों के कथन तथा उद्देशिका की उपयोगिता को भी स्पष्ट किया।

Пікірлер: 5
@techbunny7523
@techbunny7523 2 ай бұрын
Thank you so much mam
@rizwansiddiqui2459
@rizwansiddiqui2459 3 жыл бұрын
Very helpful 🙏
@SameerAnsari-gh9sh
@SameerAnsari-gh9sh 2 жыл бұрын
Tha You Medam.
@pranjalisingh5610
@pranjalisingh5610 2 жыл бұрын
Awesome maam 🙏
@rizwansiddiqui2459
@rizwansiddiqui2459 3 жыл бұрын
Mam RJS KE point of view se kuchh lectures dal dijiye 🙏
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