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हमारे जो गुरू रहे भारत वर्ष के वो विद्मान रहे हैं... उन्होंने हमें यानि अपने शिष्यों भी विद्मान बनाया.. जैसे धर्मकृति आदि जैसे ग्रंथों को देख कर हम समझ सकते हैं कि गुरुओं ने हमें किस प्रकार महान बनाया है। वैसे तो प्रमाणिक जो दर्शन है वो चीन में भी है लेकिन तिब्बत की तरह बड़ी गंभीरता से एक संपूर्ण रूप से अनुवाद न हुआ... न ही उसका प्रचार हुआ। लेकिन तिब्बत में जैसा कि तिब्बती परंपरा से देखते हैं... तिब्बत में बौद्ध धर्म दर्शन पर जब अध्ययन करते हैं प्रमाणिक सवाल-जवाब और शास्त्र-अर्थ के साथ पूरी परंपरा से करते हैं। मात्र तिब्बत ही एक ऐसा देश है या समाज है जहां भगवान हुद्ध अभी भी जीवित हैं। जैसे की तिब्बती धर्म में वज्र यान के चार सिद्धांतवादी परंपराएं या शाखांए हैं ये सब संपूर्ण रूप से देखे जा सकते हैं। चीन में हुआ तो था लेकिन संपूर्ण रूप से हम नहीं देख सकते हैं। जैसे प्रग्यापारण्य या चित्तमातृ के दर्शन के माध्यम से अनुवाद हुआ अभ्यास हुआ लेकिन संपूर्ण रूप से तिब्बत में ही इसका अनुवद हो पाया है। अब इसके बाद जो बुद्ध के प्रवचन की जो मूल ग्रंथ है भावनाक्रम पर आता हूं... अब जैसे भावनाक्रम के नाम से ही स्पष्ट है कि भावना यानि दिमाग- सोच- विचार.. तो सोच जो है-हमारे दिमाग पर यानि लालच करना या गुस्सा करना या ना समझना...यानि कि अज्ञानता ... तो इन सब कलेशों पर पाप की जो सोच है उस ओर न छोड़ते हुए मन को काबू में करना चाहिए, मन को काबू में करना चाहिए... अपने तक ही सीमित रखना चाहिए.. मन को धर्म के कार्यों की ओर लगाना चाहिए .... क्योंकि मन में अच्छी बाते लाने के लिए और धर्म की ओर ले जाने के लिए न तो कई दवाई बनी है और न ही कोई ऑपरेशन से हो सकता है... मन में बदलाव लाने का सिर्फ एक ही तरीका है--- ध्यान करना।
जैसे कि यहां पर भावनाक्रम- भावनाक्रम का अर्थ ही बनता है कि अनुभव होना... अनुभव होने के लिए यहां पर दो विषय आते हैं... या तो आप को कांट-छांट करके अनुभव करना चाहिए.. या फिर जिस विषय पर आपने कांट-छान की है उस विषय पर मन को रखना। ये दो माध्यम कि अनुभव के। वैसे तो श्रद्धा के माध्यम से आस्था रखते हुए भी अनुभव का ज्ञान हो सकता है लेकिन मूल ये ही दो विषय़ हैं।