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बहुत से लोग राजस्थान के सम्बन्ध में गलत धारणाएं रखते हैं यथा पानी की कमी, रेगिस्तान आदि आदि, मगर राज्य कला व संस्कृति तथा ऐतिहासिक धरोहरों में देश के अग्रणी राज्यों में गिना जाता हैं. यहाँ के लोक नृत्य, लोग संगीत व परम्पराएं विरली ही हैं. आज हम मेवाड़ के गवरी नृत्य के सम्बन्ध में आपकों बता रहे हैं. उदयपुर, डूंगरपुर, सिरोही और बांसवाड़ा आदि क्षेत्र के भील जनजाति के लोग सदियों से गवरी नृत्य की परम्परा को जीवंत बनाएं हुए हैं. गोगुंदा खेरोदा आरवाड़ा वल्लभनगर सिंधु खेड़ी व बंजारा की गवरी लोकप्रिय मानी जाती हैं
जनसंचार के लोक माध्यम गवरी में लोक संस्कृति को प्रदर्शित करती हुई कई नृत्य नाटिकाएँ होती हैं. वादन, संवाद व प्रस्तुती करण के आधार पर मेवाड़ की गवरी सबसे अलग हैं. ये नृत्य नाटिकाएँ पौराणिक कथाओं, लोकगाथाओं एवं लोक जीवन की कई प्रकार की झांकियों पर आधारित होती हैं.
गवरी का आयोजन रक्षाबंधन के दूसरे दिन से आरंभ होता हैं. गवरी के समय सारा वातावरण भक्तिमय हो जाता हैं. सभी गहरी आस्था में डूब जाते हैं. सामाजिक चेतना का आभास होता हैं. गवरी के माध्यम से हमारी लोकगाथाएँ जनता तक पहुचती हैं, जो लोग इन गाथाओं से अनभिज्ञ हैं, उनको इसकी जानकारी प्राप्त होती हैं. और जनता तक एक सकारात्मक संदेश इसके माध्यम से पहुचता हैं.
गवरी नाम पार्वती के गौरी से लिया गया हैं. भील शिवजी के परम भक्त होते हैं तथा इन्हें अपना आराध्य देव मानते हैं उन्ही के सम्मान में गवरी मनाते हैं. दरअसल गवरी न सिर्फ एक नृत्य हैं बल्कि यह गीत संगीत वादन तथा नृत्य का सामूहिक स्वरूप हैं. इसकी गिनती राजस्थान के मुख्य लोक नृत्यों में की जाती हैं. तथा इन्हें लोक नाट्यों का मेरुनाट्य भी कहा जाता हैं.
भील समुदाय का यह धार्मिक उत्सव हैं जो वर्षा ऋतू में भाद्रपद माह में चालीस दिनों तक निरंतर चलता हैं. जिसमें सभी आयु वर्ग के लोग सम्मिलित होते हैं. गाँव के चौराहे में खुले स्थान पर इसका आयोजन किया जाता हैं. गवरी की मान्यता भगवान शिव और भस्मासुर राक्षस की कथा से जुड़ी हुई हैं.
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार कहते हैं जब भस्मासुर ने शिवजी के कड़े को प्राप्त कर उन्हें समाप्त करना चाहा तो उस समय विष्णु जी मोहिनी रूप धर आए तथा उन्होंने अपने रूप सौन्दर्य में असुर को फसाकर मार दिया. अपने आराध्य के प्रति सच्ची श्रद्धा को प्रकट करने तथा नई पीढ़ी को अतीत से जुड़े संस्मरण याद दिलाने के लिए गवरी का नृत्य किया जाता हैं
गवरी में उपासक, आयोजक एवं अभिनेता केवल भील ही होते हैं. भीलों की एकता, दक्षता एवं ग्रामीण जीवन और आदिम जातीय जीवन के सम्बन्धों का परिचय इस नृत्य में देखने को मिलता हैं. जानने योग्य बात यह हैं कि इसमें स्त्रियाँ भाग नहीं लेती हैं पुरुष ही स्त्रियों के वस्त्र धारण कर उनका अभिनय करते हैं.
इस नृत्य में चार प्रकार के पात्र होते हैं शिव पार्वती व मानव, दानव और पशु पात्र. प्रत्येक भील समुदाय के व्यक्ति का यह कर्तव्य माना जाता हैं कि वह इस उत्सव में भाग ले. गवरी 40 दिनों तक किसी एक स्थान विशेष पर आयोजित न होकर घूम घूमकर भिन्न भिन्न स्थानों पर खेली जाती हैं. तथा अभिनय करने वाले पात्र चालीस दिन तक अपनी वेशभूषा को नहीं उतारते हैं.
पात्र
मानव पात्रः बुढ़िया, राई, कूट-कड़िया, कंजर-कंजरी, मीणा, नट, बणिया, जोगी, बनजारा-बनजारिन तथा देवर-भोजाई
दानव पात्रः भंवरा, खडलियाभूत, हठिया, मियावाड़।
पशु पात्रः सुर (सुअर), रीछड़ी (मादा रीछ), नार (शेर) इत्यादि।
समुदाय के लोग उत्सव से पूर्व गौरी के देवरे से पाती अर्थात पत्ते मंगाते हैं. जिसका आशय यह हैं कि देवी से गवरी को खेलने की अनुमति मांगी जाती हैं. पाती के साथ ही माँ की पूजा अर्चना कर उनसे आशीर्वाद लिया जाता हैं कहते हैं कि पूजा स्थल पुजारी में जब देवी प्रविष्ट होती हैं तब उनसे अनुमति लेकर गवरी की शुरुआत करने परम्परा हैं.
रोचक बाते
गवरी के चालीस दिन तक भील अपने घर नहीं आते हैं.
वे एक वक्त का भोजन करते हैं तथा नहाते नहीं हैं.
चालीस दिनों तक हरे साग सब्जी तथा मांस आदि का सेवन नहीं किया जाता हैं.
एक गाँव से दूसरे गाँव बिना जूते के जाकर वहां नाचते हैं.
एक गाँव के भील गवरी में उसी गाँव जाएगे जहाँ उसके गाँव की बेटी का ससुराल हो.
गवरी का समापन
40 दिनों तक चलने वाले गवरी नृत्य का समापन भी परम्पराओं के अनुसार ही किया जाता हैं. अंतिम दिन को गड़ावण-वळावण कहा जाता हैं. गड़ावण वह दिन होता हैं जब माता पार्वती की मूर्ति को बनाया जाता हैं तथा वळावण के दिन इसे विसर्जित कर दिया जाता हैं.
गड़ावण के दिन बस्ती के लोग गाँव के कुम्हार के पास जाते हैं तथा माँ पार्वती की मूर्ति बनवाते हैं. इस मूर्ति को ढोल नगाड़े तथा नृत्य करते घोड़े पर बनी पार्वती जी की मिटटी की मूर्ति को गाँव में फेरी लगाने के बाद देवरे ले जाया जाता हैं. जहाँ रात भर गवरी खेली जाती हैं. वळावण के दिन नजदीकी जल स्रोत में विसर्जन के बाद सभी स्नान कर नयें वस्त्र धारण करते है जिन्हें स्थानीय भाषा में पहरावनी कहते हैं. ये वस्त्र सगे सम्बन्धियों द्वारा लाए जाते हैं.
गवरी नृत्य के दौरान वेशभूषा
अगर गवरी नृत्य में प्रयुक्त वेशभूषा की बात करें तो खासकर गरासिया समुदाय की महिलाओं का पहनावा बेहद आकर्षक एवं विचित्र तरीके का होता हैं. सजने और संवरने के मामले में उनका कोई सानी नहीं हैं. उनके कपड़े सिरोही तथा पिंडवाड़ा में बड़े स्तर पर तैयार किये जाते है जो कीमत की दृष्टि से भी काफी महंगे होते हैं.
गाँवों में अच्छी बरसात की कामना को लेकर गवरी नृत्य शुरू किया जाता हैं, इसका शुभारम्भ राखी के दूसरे दिन से ही हो जाता हैं, अगले सवा माह तक चलने वाले इस नृत्य के कार्यक्रमों के दौरान गौरी शंकर व कई देवी देवताओं का पूजन किया जाता है तथा सर्वकाम सिद्धि की कामना की जाती हैं.