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मसौदा - सुन्दरसाथ को सिखापन | Shri Prannath Ji | @SPJIN Pranam Ji
मसौदा (मसविदा) मसौदः (ए किताब मारिफत सागर जो हकताला के हुकम से पैदा हुई, हादी के दिल पर आप बैठ के बिगर हिजाब बारीक बातें ‘‘चौपाई’’ मुंह से केहेलवाई। सो कलाम ज्यों आवते गए, सो यारों ने लिखे और फिर हादी प्यार से सुनते गए। सो सुन सुन के, हुकम से हाल अपने पर,,(प्र. प्रस्तावना)
भावार्थ- इस ‘मारिफत सागर’ ग्रन्थ का अवतरण अक्षरातीत परब्रह्म के आदेश से हुआ है। मेहमत स्वरूप श्री महामति जी के धाम हृदय में धामधनी अपने आवेश स्वरूप से साक्षात् विराजमान होकर एकाकार हुए तथा र्कुआन की गुह्यतम् बातों को मेहमत स्वरूप श्री महामति जी के मुख से चौपाईयों के रूप में प्रत्यक्ष कहलवाये। जैसे-जैसे चौपाईयों के रूप में अमृतमयी शब्दों का अवतरण होता गया, उसे सुन्दरसाथ लिखते गये। तत्पश्चात् श्री जी ने उन्हीं शब्दों को पुनः सुना। उसे सुनकर श्री जी की सुरता परब्रह्म के आदेश से निरन्तर अखण्ड परमधाम के रंगमहल-मूल मिलावे में इस प्रकार रहने लगी कि उन्हें अपने शरीर की कोई सुधि ही नहीं रहती थी। विक्रम संवत १७४८ में इस ‘मारिफत सागर’ ग्रन्थ के अवतरण के पश्चात् अन्य कोई भी ग्रन्थ नहीं उतरा। केवल धाम चलने अर्थात् अपनी अन्तर्दृष्टि से परमधाम के देखने से सम्बन्धित कुछ कीर्तन उतरे। इन किर्तनों में श्री महामति जी की आत्मा पुकार-पुकार कर कह रही हैं कि-
'अब हम रहयो न जावही, मूल मिलावे बिन। हिरदे चढ़-चढ़ आवहीं, संसार लगत अगिन।।'
दिन-प्रतिदिन वे शरीर और संसार भाव से पूर्णतया हटकर परमधाम के भावों में इतने डूबते गये कि उन्होंने विक्रम संवत १७५१ में श्रावण मास की तीज-चौथ को अपनी सूरता को इस नश्वर संसार से हटाकर मूल मिलावे में पूर्णतया केन्द्रित कर दिया और महाराजा छत्रसाल जी को जागनी लीला का नेतृत्व सौंप कर स्वयं परमधाम के आनन्द में डूबे रहने लगे।
'महाराजा जी सों कह्या, एक देखत हो तुम। तिस वास्ते सेवा साथ की, सौंप चलत हैं हम।।'
बीतक साहिब, किन्तु ऐसा नहीं समझ लेना चाहिये कि श्री महामति जी का शरीरान्त हो गया। पंचमी को श्री जी के समाधिस्थ तन को गुम्मट जी में झूले पर पधराया गया तथा उनके सिंहासन पर ब्रह्मवाणी श्री कुल्जुम स्वरूप को उनके वाङ्गमय कलेवर के स्वरूप में पधराकर पूर्व की भांति ही सेवा, चर्चा आदि की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी। यद्यपि श्री जी की अन्तर्धान लीला की बात सुनकर बहुत से सुन्दरसाथ ने विरह में अपना तन छोड़ दिया था, किन्तु कुछ विशिष्ट कार्यों के लिये श्री जी ने महाराजा छत्रसाल जी, लाल दास जी, मुकुन्द दास जी, केशव दास जी आदि ब्रह्ममुनियों को अपने देह त्याग की स्वीकृति नहीं दी, किन्तु उनकी विरह व्यथा को शान्त करने के लिये एक वर्ष तक प्रत्यक्ष रूप से दर्शन देकर उनकी जिज्ञासाओं का सामाधान करते रहे। किन्तु बाद में सांसारिक लोगों के कारण उस दिव्य लीला में बाधा पड़ने लगी जिसके परिणाम स्वरूप श्री जी ने उस अलौकिक लीला का अन्तर्धान कर लिया (छिपा लिया)। यद्यपि बलि, व्यास, विभीषण, परशुराम, हनुमान, कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा को कल्पान्त तक चिरंजीवी रहने का वर प्राप्त है, किन्तु इन्हें भी प्रकृति की मर्यादाओं का उल्लंघन करने का एक सीमा से अधिक का अधिकार नहीं है। सच्चिदानन्द परब्रह्म ने जिस तन में विराजमान होकर प्रत्यक्ष रूप से लीला की हो, उसकी स्थिति सांसारिक महापुरुषों से भिन्न हैं। उन्हें प्रकृति के नियमों के बन्धन में नहीं बांधा जा सकता, किन्तु उन्होंने अपनी अन्तर्धान लीला इसलिये की जिससे ब्रह्ममुनियों के द्वारा छठे दिन की जागनी लीला का प्रारम्भ हो सके। यह उन सुन्दरसाथ का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है जो श्री प्राणनाथ जी का धामगमन मनाते हैं और कहते हैं कि श्री प्राणनाथ जी हमें छोड़कर परमधाम चले गये। वे अपनी साक्षी में इसी मारफत सागर ग्रंथ के अन्त में लिखे मसौदे को उद्धृत करते हैं-
अधिक जानकारी हेतु पर जाये तथा मारिफत सागर की प्रस्तावना जरूर पढ़ें-
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