मुनि श्री 108 श्रमण सागर जी

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Muni Shri Shraman Sagar Ji Maharaj Ke Bhakt

Muni Shri Shraman Sagar Ji Maharaj Ke Bhakt

Күн бұрын

कल्पना के अद्रस्य सागर में वह अमूलचूल डूबा था और शेष बची कुछ क्षण जिंदगी से पूरी तरह ऊबा था, जीवन के बीते पल उसकी आंखो में साफ झलक रहे थे खुशहाल मदमस्त दिन बार बार सुलग रहे थे । काश उन सक्षम दिनों में मैं संयमित जीवन जीता गुरुओं के उपदेश सुनता धर्मामृत पीता, ये जो मृत्युशय्या आज मुझे कांटो सी चुभ रही है मानो इसी जगह आज फूलो का साज होता, परंतु उन सक्षम दिनों में मैं मद में चूर था, मान अभिमान अहंकार कुछ भी कहो नशा भरपूर था, जीवन के इस रूप से भी साक्षात्कार होगा ऐसा विचार तो मेरे चिंतन से कोसो दूर था। वह इसी तरह आत्म आलोचनारत था और अब उसकी मृत्यु का समय और भी निकट था, चिंतन के इन्ही झोंको में एक सुखद हवा चली केवल मात्र एक ही बात उसे ठीक लगी और वह विचारने लगा इस अकाढ सत्य से सबका निश्चित साक्षात्कार है, जन्म हुआ है मरण भी होगा यही लोक व्यवहार है, मै शिशु हूं यह बात सही है पर उनसे तो अच्छा हूं, क्या होगा उनका इस जग में जिनका अभी जन्म उधार है।। अहिंसा परमोधर्म की जय।।

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