पाश्चात्य दर्शन में प्लेटो को प्रथम दार्शनिक अथवा पूर्ण ग्रीक दार्शनिक क्यों कहा जाता है?

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दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी

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पाश्चात्य दर्शन में प्लेटो को 'पूर्ण ग्रीक' के नाम से संबोधित किया जाता है, क्योंकि उन्होंने ग्रीक दर्शन के मूल तत्वों को नया रूप दिया। उनके दृष्टिकोण में माइलेशियन दार्शनिकों का द्रव्य सिद्धांत, पार्मैनाइड़ीज का नित्य सत्ता का सिद्धांत और हेरेक्लाइटस के परिवर्तनशीलता के सिद्धांत का गहरा समावेश है। प्लेटो ने पाइथेगोरस के रहस्यवाद, आत्मा की अमरता और संख्या के सिद्धांत को अपने विचारों का आधार बनाया, जबकि पार्मेनाइडीज के 'सत्' के चिद्रूप होने की अवधारणा को आत्मसात किया।
गुरु सुकरात से प्रेरित होकर, उन्होंने तर्क (Reason) और आत्मा की अमरता की दिशा में गहराई से सोचा। प्लेटो का दर्शन केवल ज्ञान का संग्रह नहीं था, बल्कि यह एक परिष्कृत समन्वय था, जिसमें उन्होंने पूर्ववर्ती दार्शनिकों के विचारों को मौलिक रूप से जोड़ते हुए एक नई दिशा दी। उनका दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि जीवन का उद्देश्य तत्त्व का निर्विकल्प अनुभव करना है, जिससे मानव आत्मा असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ सके। इस प्रकार, प्लेटो ने ग्रीक दर्शन में अद्वितीय योगदान दिया और इसे गहराई और रहस्य से भर दिया।
रहस्यवादी पूर्ण ग्रीक दर्शन-प्लेटो को "पूर्ण ग्रीक" (The complete Greek) कहा जाता है क्योंकि उनके दार्शनिक सिद्धान्तों के जरिए ग्रीक दर्शन अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा है।
प्लेटो को 'पूर्ण ग्रीक' के नाम से संबोधित करने के पीछे कई कारण हैं:
प्लेटो ने अपने दर्शन में न केवल तर्क और तात्त्विक विचारों को शामिल किया, बल्कि उन्होंने नैतिकता, राजनीति, और शिक्षा के संबंध में भी गहरे विचार प्रस्तुत किए। उनके सिद्धांत, जैसे 'सिद्धांतात्मक रूप' और 'आदर्श राज्य', ने न केवल ग्रीस में बल्कि पूरे पश्चिमी दर्शन में महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। प्लेटो ने शिक्षा पर जोर दिया और एक शिक्षाविद के रूप में 'एकेडमी' की स्थापना की।
प्लेटो के दर्शन में हमको इन सभी दर्शन-सिद्धान्तों का चरम विकास देखने को मिलता है- 'माइलेशियन' मत का द्रव्य सिद्धान्त, एनेक्जिमेन्डर का असीम तत्त्व सिद्धान्त, पाइथेगोरस का स्वरूप' या 'संख्या' सिद्धान्त तथा पाइथेगोरस के रहस्यवाद का सिद्धान्त, हेरेक्लाइटस का परिणाम' सिद्धान्त तथा सार्वभौम विज्ञान' सिद्धान्त, पार्मेनाइडीज का 'चिद्रूप सत्' सिद्धान्त, जीनो का 'द्वन्द्वात्मक तर्क' सिद्धान्त, एम्पेडोक्लीज का 'प्रेम' सिद्धान्त, एनेक्जेगोरस का 'परम विज्ञान सिद्धान्त, परमाणुवादियों का भौतिक विज्ञान' सिद्धान्त, प्रोटोगोरस का 'मानव मानदण्ड' सिद्धान्त और सुकरात (सॉक्रेटीज) का 'विज्ञानवाद' सिद्धान्त, 'विज्ञानस्वरूप शिवतत्व सिद्धान्त, 'द्वन्द्वात्मक तर्क' सिद्धान्त तथा 'निर्विकल्प स्वानुभूति' सिद्धान्त।
प्लेटो के दर्शन में उपरोक्त सभी दार्शनिक सिद्धान्तों का चरम विकास या परिष्कृत रूप पाया जाता है, ऐसा लगत, इनके दर्शन में ही ये सभी पूर्णता पाते हैं।
ऐसी बात नहीं है कि प्लेटो ने इन सभी सिद्धान्तों का केवल संग्रह मात्र ही किया हो। प्लेटो एक महान दार्शनिक और कलाकार थे। अपने दर्शन के अन्दर उन्होंने इन सब दार्शनिक सिद्धान्तों का मौलिक रीति से समन्वय किया था। प्लेटो ने एक योग्य शिष्य तथा जिज्ञासु की भाँति अपने पूर्व हो चुके विभिन्न दार्शनिकों के दर्शन से विभिन्न प्रकार की दर्शन शिक्षाएँ ग्रहण की थीं। यथा -दार्शनिक पाइथागोरस से प्लेटो ने गणित प्रेम सीखा। उनके रहस्यवाद को ग्रहण किया। उनकी आत्मा की अमरता के सिद्धान्त को, उनके परलोक से विश्वास करने के सिद्धान्त को तथा इनके स्वरूप या संख्या के सिद्धान्त को भी स्वीकार किया।
दार्शनिक हेरेक्लाइटस से प्लेटो ने यह सीखा कि दृश्य जगत् के अन्दर परिणाम और अनित्यता का अखण्ड साम्राज्य होता है। पार्मेनाइडीज दार्शनिक से प्लेटो ने 'सत्' के चिद्रूप होने, अद्वितीय-निरपेक्ष-नित्य अपरिणामी-दिक्कालातीत और परमार्थी होने का सिद्धान्त ग्रहण किया। दार्शनिक एनेक्जेगोरस से प्लेटो ने 'परमविज्ञान' के जगत् की गति और परिणाम का एक मात्र कारण होने का सिद्धान्त सीखा परमाणुवादी दार्शनिकों से प्लेटो ने अपने भौतिक विज्ञान के कुछ सिद्धान्तों में मदद ली। अपने गुरु सुकरात (सॉक्रेटीज) से तो उन्होंने सब कुछ सीखा।
प्लेटो ने उपरोक्त दार्शनिकों के विचारों का समन्वय अपने मौलिक विचारों के साथ किया। यह बात सही है कि प्लेटो को उनके पूर्ववर्ती सभी ग्रीक दार्शनिकों ने प्रभावित किया था और यह भी सच है कि प्लेटो के दार्शनिक विचारों का प्रभाव उनके परवर्ती या। उनके बाद में आने वाले पाश्चात्य दार्शनिकों के ऊपर भी पड़ा था।
प्लेटो को 'रहस्यवादी दार्शनिक' माना जाता है। वे दर्शन को जीवन का अंग समझते थे। वे कहा करते थे "दर्शन का लक्ष्य तत्त्व का निर्विकल्प साक्षात्कार करना होता है। दर्शन का मुख्य उद्देश्य आत्मा को इन्द्रियानुभूति से ऊपर उठाकर तर्क के सविकल्प स्तर पर होते हुए निर्विकल्प स्वानुभूति तक ले जाना होता है। दर्शन का ध्येय है-असत् से सत् की ओर जाना, अन्धकार से प्रकाश की ओर जाना तथा मत्यु से अमरत्व की ओर जाना। यह महत्त्वपूर्ण कार्य केवल साधना के जरिए ही हो सकता है। तर्क तो तत्त्व को ओर संकेत मात्र ही करता है। तत्त्व का साक्षात्कार करना ही साधना का मुख्य विषय है। शायद इसीलिए दार्शनिक प्लेटो ने गुरु-शिष्य के साक्षात् (प्रत्यक्ष) सम्पर्क (सम्बन्ध) को इतना अधिक महत्त्व दिया था।
प्लेटो मानते थे कि एक दार्शनिक व्यक्ति का लक्ष्य अपनी शान्तिमय साधना के जरिए निर्विकल्प अनुभूति प्राप्त करना होना चाहिए। लेकिन इसके साथ-साथ दार्शनिक का कार्य लोक संग्रह या लोक कल्याण करना भी होता है। वास्तविक लोक कल्याण तो मनुष्य अथवा दार्शनिक द्वारा तभी हो पाता है, जब वह सिद्ध स्थिति पा लेता है। जरूरत पडने पर ये ही सिद्ध लोग निर्लिप्त भाव से सांसारिक क्षेत्र में उतरते हैं। जब ऐसे सिद्ध महापुरुषों की प्रधानता जगत् में न होगी, तब तक संसार में शान्ति की स्थापना नहीं हो सकेगी।

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