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चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की
एकादशी को पापमोचनी एकादशी,
पापांकुशा एकादशी के
नाम से जाना जाता है। यह समस्त पापों, विघ्नों,
कष्टों और नकारात्मकता को हरने वाली एकादशी है I
पापमोचनी व्रत से जुड़ी एक कथा भी है। प्राचीन
समय में एक चैत्ररथ (चित्ररथ) वन में अप्सरायें वास
करती थीं। वहां हर समय बसन्त रहता था। ऋषि च्यवन, भृगु
ऋषि के पुत्र , ऋषि भृगु ब्रह्मा मनसा
पुत्र थे । उस वन में, ऋषि च्यवन के पुत्र मेधावी नामक मुनि तपस्या
करते थे I। वे शिव भक्त थे। उनके
तप से देवराज इन्द्र विचलित हो गए। उन्होंने ऋषि की तपस्या भंग करने के लिए
मंजुघोषा अप्सरा को भेजा। मंजुघोषा नामक अप्सरा उनको मोहित करने के लिए सितार
बजाकर मधुर २ गाने गाने लगी। उस समय शिव के शत्रु अनंग (कामदेव) भी शिव भक्त
मेधावी मुनि को जीतने के लिए तैयार हुए। कामदेव ने उस सुन्दर के भ्रू को धनुष
बनाया। कटाक्ष को उसकी प्रत्यंचा (डोरी बनाई) उसके नेत्रों को उसने संकेत बनाया और
कुचों को कुरी बनाया। उस मंजुघोषा अप्सरा को सेनापति बनाया। इस तरह कामदेव अपने
शत्रुभक्त को जीतने को तैयार हुआ। तप में विलीन मेधावी ऋषि ने जब अप्सरा को देखा
तो वह उस पर मन्त्रमुग्ध हो गए और अपनी तपस्या छोड़ कर मंजुघोषा के साथ वैवाहिक
जीवन व्यतीत करने लगे।
कुछ वर्षो के पश्चात मंजुघोषा ने ऋषि से वापस स्वर्ग जाने की बात कही। तब ऋषि बोध
हुआ कि वे शिव भक्ति के मार्ग से हट गए और उन्हें स्वयं पर ग्लानि होने लगी। इसका
एकमात्र कारण अप्सरा को मानकर मेधावी ऋषि ने मंजुधोषा को पिशाचिनी होने का शाप
दिया। इस बात से मंजुघोषा को बहुत दुःख हुआ और उसने ऋषि से शाप-मुक्ति के लिए
प्रार्थना की।
क्रोध शांत होने पर ऋषि ने मंजुघोषा को पापमोचनी एकादशी का व्रत विधिपूर्वक करने
के लिए कहा। चूंकि मेधावी ऋषि ने भी
शिव भक्ति को बीच राह में
छोड़कर पाप कर दिया था, उन्होंने भी अप्सरा के साथ इस व्रत को विधि-विधान से किया
और अपने पाप से मुक्त हुए।
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