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30 सितम्बर, 1930 को भगतसिंह के पिता सरदार किशन सिंह ने ट्रिब्यूनल को एक अर्जी देकर बचाव पेश करने के लिए अवसर की माँग की। सरदार किशन सिंह स्वयं देशभक्त थे और राष्ट्रीय आन्दोलन में जेल जाते रहते थे। उन्हें व कुछ अन्य देशभक्तों को लगता था कि शायद बचाव पक्ष पेश कर भगतसिंह को फाँसी के फन्दे से बचाया जा सकता है, लेकिन भगतसिंह और उनके साथी बिल्कुल अलग नीति पर चल रहे थे। उनके अनुसार, ब्रिटिश सरकार बदला लेने की नीति पर चल रही है व न्याय सिर्फ ढकोसला है। किसी भी तरीके से उसे सजा देने से रोका नहीं जा सकता। उनका मानना था कि उनका नाम भारतीय क्रान्ति का प्रतीक बन गया है और अपनी कुर्बानी से वे जनता में इन्कलाबी भावनाएँ जगाना चाहते थे। पिता द्वारा दी गयी अर्जी से भगतसिंह की भावनाओं को ठेस लगी थी, लेकिन अपनी भावनाओं को नियन्त्रित कर अपने उसूलों पर ज़ोर देते हुए उन्होंने 4 अक्टूबर, 1930 को यह पत्र लिखा जो उनके पिता को देर से मिला। 7 अक्टूबर, 1930 को मुकदमे का फैसला सुना दिया गया, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को सजा-ए-मौत का हुक्म हुआ।
आज़ादी बाकी है