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वह शब्दों की जादूगर हैं. भाषा उनके यहां नृत्य करती है, तो कथाएं बेपरवाह औघड़ की तरह अपनी एक अलग दुनिया रचती हैं. अगर ऐसा न होता तो वे 'खाली जगह' में 'रेत-समाधि' नहीं लगातीं, न ही 'हमारा शहर उस बरस` के साथ 'माई` और 'मार्च, माँ और साकूरा' जैसी कृतियों से साहित्य जगत को समृद्ध करतीं. हम बात कर रहे हैं अंतर्राष्टीय बुकर पुरस्कार से सम्मानित लेखिका गीतांजलि श्री की. पर क्या गीतांजलि श्री बुकर भर ही हैं? क्या और क्यों उनका लेखन उस रूप में इस देश में पहले सराहा नहीं गया जिस रूप में उन्हें सराहा जाना चाहिए था. यों वे हिंदी की वह पहली लेखिका हैं जिन्हें यह पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार उनके उपन्यास ‘रेत समाधि ‘ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘Tomb of sand’ के लिए अनुवादक डेज़ी रॉकवेल के साथ मिला. पर 'तिरोहित', 'अनुगूंज`,'वैराग्य` और 'यहाँ हाथी रहते थे' जैसी कृतियों का कथानक इतना अछूता कैसे रह गया? खासकर प्रसिद्धि के स्तर पर.
साहित्य तक स्टूडियो के 'बातें-मुलाकातें' कार्यक्रम में जब गीतांजलि श्री पहुंचीं तो वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश पाण्डेय ने उनसे लंबी बातचीत की. इस दौरान रेत समाधि, पुरस्कार, लेखन आदि से लेकर उनके बचपन, उनकी परवरिश, अंग्रेजी लेखन, अनुवाद, पसंदीदा साहित्यकार, हिंदी, हिंदी साहित्य की स्थिति और बुकर के बाद जीवन में आए बदलावों पर चर्चा हुई. गीतांजलि श्री कहती हैं कि साहित्यकार बनने के लिए मौन और मनन बेहद ज़रूरी है, साथ ही उनका मानना है कि रचना हमेशा रचनाकार से बड़ी होती है. पुस्तक अंश के पाठ के दौरान वे महात्मा गांधी का भारत के लिए संदेश भी देती हैं कि गांव को इकाई बनाओ न कि शहर को, सादगी अपनाओ न कि दानवीय विकास को, ज़रूरत की सीमा अपनाओ न कि लालच की, जिसकी कोई सीमा नहीं. सबके हित में अपने हित को जानो ना कि खुद के लिए महल और बाकी जाएं भाड़ में का रुख अपनाओ, प्रकृति का आदर करो न कि उसे नोचो खसोटो. पर्याप्त है पृथ्वी पर सबके लिए अगर सद्भाव से सहवास हो. साहित्य और भाषा' पर लंबी बातचीत के दौरान गीतांजलि श्री ने यह भी कहा कि उनका मानना है कि लिखने के लिए विशेषकर एक स्त्री को लिखने के लिए एकांत की आवश्यकता होती ही है. इसके पीछे उनका क्या तर्क है, जानने के लिए सुनिए यह बतकही.
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