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"श्री कृष्ण की तीन पटरानियाँ थी रुक्मिणी, जामवंती और सत्यभामा। सत्यभामा अपने रूप के कारण अहंकार में रहती थी। सत्यभामा के अहंकार का कारण सत्यभामा के पिता सत्रहजित के पास धान की बरसाने वाली मणि थी जिससे प्रति दिन बीस मण सोना बरसता था। सत्रहजित की मणि को लेकर द्वारिका में चिंतन किया जाता है और उस मणि को राज कोश में जमा करवाने के लिए बातचीत होती है और इस निर्णय पर आते हैं की उसे समन्तक मणि राज कोश में जमा करवाने के लिए बुलाया जाए। अक्रूर के सत्रहजित को समझाते हैं लेकिन वो नहीं मानता। बलराम यह सुन क्रोधित होते हैं और उसे सजा देने के लिए चलने को तैयार होते हैं तो श्री कृष्ण बलराम को रोक देते हैं की वह उसकी समन्तक मणि सत्रहजित की है उसे उसी के पास रहना चाहिए। अगले दिन सत्रहजित का भाई समन्तक मणि को अपने साथ सुरक्षित रखने के लिए शिकार पर साथ ले जाता है जहां उसे जंगल में शेर मार देता है। सत्यभामा की माँ सत्रहजित को समझती है की हमें समन्तक मणि को श्री कृष्ण को दहेज में देने और श्री कृष्ण को अपना जमाता बनाने के लिए कहती है। तभी वहाँ अपने भाई का अश्व वहाँ आ जाता है जिसे अकेले आता देख सत्रहजित और उसके साथी उसे ढूँढने निकल पड़ते हैं। जंगल में उन्हें उसके के खून से सने कपड़े मिलते हैं। सभी उसे देख यह तर्क देते हैं की ज़रूर द्वारिकाधीश ने ही उसे तो नहीं मरवा दिया और समन्तक मणि को ले गए। बलराम को जब श्री कृष्ण पर लगे आरोप के बारे में सुनाई पड़ता है तो वह क्रोधित हो उठता है। अक्रूर और सारतिके बलरमा को श्री कृष्ण से सलाह लेने के लिए कहते हैं।श्री कृष्ण बलराम, अक्रूर और सारतिके को समझाते हैं की हमें सत्रहजित के भाई प्रशंजित की मृत्य का सत्य ढूँढना चाहिए और उस मणि को ढूँढना होगा। ताकि श्री कृष्ण पर लगे कलंक को मिटाया जा सके। श्री कृष्ण वन में जाते हैं और वहाँ प्रशंजित पर हुए हमले की जगह का निरीक्षण करते हैं तो उन्हें शेर के पंजो के निशान मिलते है, जिसका पीछा करते हुए वो सब एक गुफा के पास पहुँचते है। श्री कृष्ण अंदर जाते हैं और वहाँ एक शेर की लाश मिलती हैं। श्री कृष्ण जब आगे बढ़ते हैं तो उन्हें एक स्त्री को समन्तक मणि के साथ पाते हैं। वह स्त्री जामवन्त की पुत्री थी, जामवन्त से श्री कृष्ण उस मणि को वापस माँगते हैं लेकिन वह मना कर देता है। श्री कृष्ण और जामवन्त के बीच युद्ध शुरू हो जाता है और युद्ध में जामवन्त श्री कृष्ण से हार जाता है। जामवन्त श्री कृष्ण से हारने के बाद उन्हें बताते हैं की श्री राम ने उन्हें त्रेतायुग में कहा था कि मेरी द्वापरयुग में मिलने वासुदेव के रूप में आऊँगा। श्री कृष्ण उन्हें बताते हैं की मैं ही वासुदेव हूँ। जामवन्त उन्हें प्रणाम करते हैं। श्री कृष्ण जामवन्त से प्रसन्न हो वर माँगने के लिए कहते हैं। जामवन्त अपनी पुत्री जामवंती को स्वीकारने के लिए श्री कृष्ण से आग्रह करते हैं। श्री कृष्ण जामवंती को स्वीकार कर लेते हैं। श्री कृष्ण जामवंती को लेकर अपने साथ समन्तक मणि लेकर वापस द्वारिका आ जाते हैं। श्री कृष्ण उस मणि को लेकर अपने साथ सत्रहजित के पास जाते हैं और उन्हें उसकी मणि लौटा देते हैं। सत्रहजित श्री कृष्ण से उनपर लगे आरोपों को क्षमा माँगता है, और श्री कृष्ण को मणि भेंट करते हैं। सत्यभामा की माँ श्री कृष्ण से कहती हैं कि कृपया करके हमारी पुत्री सत्यभामा को भी पत्नी के रूप में स्वीकार करें। इस प्रकार सत्यभामा से भी श्री करिशं का विवाह हो जाता है।
सभी पांडव और द्रौपदी श्री कृष्ण के साथ हस्तिनापुर पहुँच जाते हैं। श्री कृष्ण धृतराष्ट्र से पांडवों के हक़ की बात रखते हैं जिस पर पांचाल के युवराज शिखंडी राजा धृतराष्ट्र को हस्तिनापुर का बँटवारा करने के लिए कहते हैं। धृतराष्ट्र पांडवों को खाण्डव वन का राज्य दे देते हैं। खाण्डव वन खंडहर राजधानी थी जिसे श्री कृष्ण अर्जुन दोनों जाकर देखते हैं और उसका जायज़ा लेते हैं की वहाँ राजधानी का निर्माण कैसे होगा। श्री कृष्ण विश्वकर्मा जी को बुलाते हैं और उनसे खाण्डव वन को निर्माण करने की आज्ञा करते हैं तो विश्वकर्मा उनसे कहते हैं की इस राजधानी को बनाने के लिए दैत्य शिल्पी मेदानव को बुलाना चाहिए वो ही पांडवों की राजधानी के निर्माण करने के लिए बुलाते हैं। दैत्य शिल्पी उन्हें पुराने ख़ज़ाने के पास भी ले जाते हैं जिसकी रक्षा नागराज तक्षक करते हैं। श्री कृष्ण अर्जुन के साथ वहाँ चल पड़ते हैं। श्री कृष्ण इंद्र देव को बुलाते हैं और नागराज तक्षक को रस्ते से हटाने के लिए उनसे कहते हैं। नागराज तक्षक इंद्र के मित्र थे इसलिए उनकी बात मान नागराज तक्षक उन्हें रास्ता दे देते हैं। इंद्र देव पांडवों की नगरी पर सदैव वर्षा करने का आशीर्वाद देते हैं। ख़ज़ाने की सहायता से पांडवों के राज्य को बसाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। ख़ज़ाने में उन्हें राजा सोम का सोने का रथ मिलता है। वहाँ उन्हें कमोध की गदा मिलती है जिसे भीम हे उठा सकता है। श्री कृष्ण अर्जुन को गांडीव धनुष भी देते हैं। मेदानव अर्जुन को अक्षय तरकश भी देते हैं जिसके बाण कभी ख़त्म नहीं होते। विश्वकर्मा और दैत्य शिल्पी मेदानव दोनो मिल कर पांडवों की राजधानी का निर्माण कर देते हैं। अगले दिन पांडव अपनी नयी राजधानी में पहुँच जाते हैं। विश्वकर्मा और मेदानव द्वारा बनाए राजधानी को पांडव बहुत प्रसन्नता से देखते हैं। श्री कृष्ण युद्धिष्ठिर को उनकी नयी राजधानी का राजा बना देते हैं और उनका राज्याभिषेक करते हैं।
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