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जीव के बंधन के कारण पुनर्जन्म कैसे होता है? - जानिए श्री रामकृष्ण परमहंस के वचनो से।
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आप जो भी इस वीडियो में सुन रहे हैं, वो "अमृतवाणी" पुस्तक से ली गयी है। ये पुस्तक श्री रामकृष्ण देव के वचनो का संकलन है |
अमृतवाणी - भाग ३ || Amritwani - Part 3
जीव तथा बन्धन
२८. जीव वास्तव में सच्चिदानन्द-स्वरूप है, किन्तु अहंभाव के कारण वह विभिन्न उपाधियों में उलझकर अपने यथार्थ स्वरूप को भूल बैठा है।
२९. एक-एक उपाधि आती है और जीव का स्वभाव बदल जाता है। किसी ने शौकीनों की तरह काली धारीदार धोती पहनी कि देखना उसके मुँह से निधुबाबू के प्रेमगीतों की धुन अपने आप निकल पड़ती है। बूट-जूता चढ़ाते ही दुबला-पतला आदमी भी फूलकर कुप्पा हो जाता है; मुँह से सीटी बजाने लगता है, सीढियाँ चढ़नी हों तो साहबों की तरह उछल-उछलकर चढ़ता है! मनुष्य के हाथ में यदि कलम रहे तो उसका गुण ही ऐसा है कि सामने चाहे जैसा भी कागज का टुकड़ा क्यों न पड़ जाए, वह उसी पर कलम घिसने लग जाता है।
३०. जिस प्रकार साँप अपनी केंचुली से अलग होता है, उसी प्रकार आत्मा भी देह से अलग होती है।
३१. आत्मा निर्लिप्त है। सुख-दुःख, पाप-पुण्य आदि देह पर ही परिणामकारक होते हैं, आत्मा पर उनका कोई परिणाम नहीं होता। जैसे धुआँ सिर्फ दीवारों को ही काला करता है, दीवारों के बीच अवस्थित आकाश पर उसका कोई परिणाम नहीं होता।
३२. वेदान्तवादी कहते हैं कि आत्मा पूर्ण निर्लिप्त है। सुख-दुःख, पाप-पुण्य आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते; किन्तु वे देहाभिमानी व्यक्तियों को क्लेश दे सकते हैं। जिस प्रकार, धुआँ दीवार को काला कर सकता है, पर आकाश को कुछ नहीं कर सकता।
३३. सत्त्व, रज और तम के तारतम्य से मनुष्य भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं।
३४. वस्तुत: सभी जीवों का यथार्थ स्वरूप एक ही है, किन्तु अवस्थाभेद के अनुसार वे चार दर्जे के होते हैं - बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त।
३५. किसी मछुए ने नदी में जाल डाला। जाल में बहुतसी मछलियाँ फँसीं। कुछ मछलियाँ तो जाल में पड़कर एकदम शान्त, निश्चेष्ट पड़ी रहीं - उन्होंने बाहर निकलने की बिलकुल कोशिश नहीं की; कुछ ने भागने की बहुत कोशिश की, काफी उछल-कूद मचाई किन्तु वे भाग न पाई; और कुछ किसी तरह कूद-फाँदकर भाग निकलीं। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के जीव होते हैं - बद्ध जीव, जो कभी मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते; मुमुक्षु जीव, जो बंन्धन में होते हुए भी मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं; और मुक्त जीव, जिन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली है।
३६. तीन गुड़ियाँ हैं - एक नमक की, एक कपड़े की और एक पत्थर की। यदि इन तीनों को समुद्र में डुबो दिया जाए, तो पहली बिलकुल घुल जाएगी, उसके आकार का अस्तित्व ही नहीं रहेगा। दूसरी बहुत सा पानी सोख लेगी, किन्तु उसका आकार पूरा नष्ट नहीं होगा। और तीसरी पर पानी का कोई असर नहीं होगा। नमक की गुड़िया मानो मुक्त जीव की प्रतीक है, जो अपने अस्तित्व को विराट् सर्वव्यापी ब्रह्म के अस्तित्व में लीन कर उसके साथ एकरूप हो जाता है; कपड़े की गुड़िया मानो सच्चे भक्त की प्रतीक है, जो ईश्वरीय आनन्द और ज्ञान से पूर्ण रहता है; और पत्थर की गुड़िया मानो बद्ध संसारी जीव की प्रतीक है, जो यथार्थ ज्ञान का एक कणमात्र भी आत्मसात् नहीं करता।
३७. मनुष्य मानो तकिए के गिलाफ जैसे हैं। ऊपर से देखने में कोई गिलाफ लाल, कोई नीला, तो कोई काला होता है, परन्तु सभी के भीतर एक ही रुई है। उसी प्रकार, कोई मनुष्य देखने में सुन्दर है, तो कोई काला, कोई सज्जन है, तो कोई दुष्ट, किन्तु सब के भीतर एक ही परमात्मा विराजमान हैं।
३८. सभी गुझियाँ ऊपर से एक ही मैदे की बनी होती हैं, पर उनके भीतर अलग-अलग किस्म की पीठी होती है - किसी के भीतर नारियल की, तो किसी में खोए की। पीठी के भेद से गुझियों के प्रकार भिन्न हो जाते हैं। उसी प्रकार सभी मनुष्य एक ही उपादान से निर्मित होते हुए भी अन्त:करण की पवित्रता के तारतम्य से गुण में भिन्न हो जाते हैं।
३९. यद्यपि ब्राह्मण के घर जन्म लेने से सभी ब्राह्मण होते है, तथापि उनमें कोई बड़े पण्डित बनतें हैं, तो कोई पुजारी होते हैं, कोई रसोई बनाते हैं तो कोई वेश्याओं के दरवाजों पर लोटते रहते हैं।
४०. यह ठीक है कि बाघ के भीतर भी परमेश्वर विद्यमान हैं, पर इस कारण उसके सामने नहीं चले जाना चाहिए। उसी प्रकार यद्यपि अत्यन्त दुर्जन- व्यक्तियों के. भीतर भी ईश्वर विराजमान हैं, तथापि उनकी संगति करना उचित नहीं।
४१. यह सत्य है कि सभी जल नारायणस्वरूप है, किन्तु सभी प्रकार का जल पीने लायक नहीं होता। उसी प्रकार, यह सत्य है कि सभी जगह ईश्वर का वास है, फिर भी सभी; स्थान जाने योग्य नहीं होते। किसी जल में सिर्फ पैर धोए जा सकते हैं, किसी में मुँह धोया जा सकता है, कोई जल पिया जा सकता है, तो कोई स्पर्श तक नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार, किसी स्थान में ठहरा जा सकता है, कहीं देखने भर के लिए जाया जा सकता है, और किसी-किसी स्थान को तो दूर से ही दण्डवत् करके भाग जाना पड़ता है।
४२. जो आदमी बहुत ज्यादा बड़बड़ करता है, जो सब बातें पेट में ही छिपा रखता है, जो कान में तुलसीपत्र लगाकर धार्मिकता का ढोंग रचता है, जो औरत बहुत लम्बा घूँघट काढ़ती है, और जिस तालाब में काई छा गई हो उसका ठण्डा जल, ये सब बहुत हानिकारक होते हैं। इनसे सावधान रहना चाहिए।
मृत्यु तथा पुनर्जन्म
४३. संसारासक्त बद्धजीव मृत्यु के समय भी संसार की ही बातें करता है। बाहर माला जपने, गंगा नहाने और तीर्थयात्रा करने से क्या होगा? भीतर संसार के प्रति आसक्ति हो तो मृत्यु के समय वह अवश्य प्रकट होती है। इसी कारण बद्ध जीव उस समय कितनी ही आलतू-फालतू बातें बकता रहता है। तोता वैसे तो 'राधाकृष्ण' रटता है, पर जब बिल्ली पकड़ती है, तो अपनी स्वाभाविक बोली में 'टें टें' कर चिल्लाने लगता है।
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