टी एस इलियट का निर्वैयक्तिकता का सिद्धान्त । t s eliot ka nirvaiyaktikta ka siddhant। hindi sahitya

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टी.एस.इलियट ने परम्परा की परिकल्पना को इतना अधिक महत्त्व दिया, कि उनके कई महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सिद्धान्त या मत इसी पर निर्भर हैं। यदि साहित्य में परम्परा को स्थान दिया जाए तो साहित्य में आत्मनिष्ठ (Subjective) तत्त्व अर्थात् कवि का व्यक्तित्व उपेक्षित हो जाता है और साहित्य का वस्तुनिष्ठ (Objective) स्वरूप ही प्रमुख ठहरता है। टी.एस.इलियट ने 19वीं शताब्दी के स्वच्छन्दतावादी साहित्य में जो आत्मनिष्ठ (Subjective) साहित्य की वकालत की गयी थी, परम्परा सिद्धान्त के द्वारा उसके प्रति विद्रोह व्यक्त किया और वस्तुनिष्ठ (Objective) साहित्य को सर्वोपरि स्थान दिया । इलियट ने काव्य को 'निर्वैयक्तिक' (Impersonal) घोषित किया। निर्वैयक्तिक का तात्पर्य है वैयक्तिकता का अभाव । प्रायः यह समझा जाता है कि कवि अपने व्यक्तिगत भावों एवं अनुभूतियों को काव्य में व्यक्त करता है, किन्तु इलियट ने इसका खण्डन किया है। उसके विचार से काव्य में कवि के व्यक्तिगत जीवन का भाव रहता ही नहीं है।
टी.एस.इलियट का यह सिद्धान्त भारतीय रस सिद्धान्त के साधारणीकरण प्रक्रिया को समेटे है जिसमें नाटककार और अभिनेता के कौशल से व्यक्तिगत भाव सर्वसाधारण के भावों में बदल जाते हैं।
टी.एस.इलियट एजरा पाउण्ड के विचारों से भी प्रभावित थे, जो यह मानते थे कि कवि को वैज्ञानिक के समान इम्पर्सनल (Impersonal) या निर्वैयक्तिक होना चाहिए। इलियट का यह सिद्धान्त परम्परा के सिद्धान्त की आगे की कड़ी है, उसी का विकास है। उसकी इस स्थापना को जिसमें कहा गया है कि “कविता व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति न होकर व्यक्तित्व से पलायन है।” इसे हम निम्न उपशीर्षकों से व्यक्त कर सकते हैं-
1. काव्यगत भाव और व्यक्तिगत भाव सर्वथा भिन्न है
2. कलात्मक दबाव
3. कवि केवल माध्यम है
4. कविता के तीन स्वर

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