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राक्षस विराध के मरने के बाद चित्रकूट क्षेत्र के घनघोर जंगलों में रहने वाले राक्षस भी दहल उठे थे। इसलिए पंचवटी की ओर भागकर उन्होंने खर दूषण की शरण ली। मतलब कि पंचवटी में ऋषियों के अलावा राक्षस भी प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
इधर जब शरभंग व सुतीक्ष्ण से मिलकर भगवान सिद्धा पहाड़ की ओर बढ़े तो वहां रह रहे सिद्ध मुनियों ने उनका नारायण रूप जानकर करूण पुकार लगाई। वहां हड्डियों का ढेर देखकर भगवान क्रोधित हो उठे।
वहीं उन्होंने धरती से राक्षसों का समूल नाश करने की प्रतिज्ञा की। हालांकि इस प्रतिज्ञा का पालन वे रावण का वध करने के बाद भी करते रहे।
कईं बार अश्वमेध व राजसूय यज्ञ के बहाने पूरी धरती पर घूम घूम कर राक्षसों का वध किया। यह वहीं सिद्धा पहाड़ है। जहां से राक्षसों का अंत करने की प्रभु ने पहली बार कसम खाई।
इसका सिद्धापहाड़ नाम ही इसलिए पड़ा, क्योंकि कईं सिद्ध मुनि यहीं रूक कर भगवान की प्रतीक्षा कर रहे थे। सिद्धा पहाड़ आज भी नयनाभिराम है। इसका दर्शन ही पुण्य दाई है।
जय सियाराम