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सिक्का बदल गया
देश का विभाजन एक बहुत-बहुत बड़ी त्रासदी थी। इस त्रासदी को जिन्होंने भोगा-देखा,
उनमें से कुछ ने विभिन्न भारतीय भाषाओं में बड़ी मार्मिक कहानियां लिखी हैं। हिंदी में
भी विभाजन की त्रासदी को लेकर अनेक कहानियां लिखी गयी हैं। इन्हीं में से एक प्रसिद्ध
कहानी कृष्णा सोबती रचित 'सिक्का बदल गया' है।
इस कहानी की कथाभूमि चनाब नदी के किनारे का एक गांव है। इस गांव की
स्वामिनी शाहनी अकेली है। शाहजी कई साल पहले गुजर चुके हैं। उसका पढ़ा-लिखा
लड़का भी उसके पास नहीं है। लंबी-चौड़ी हवेली है। सिर्फ इसी गांव के नहीं, मीलों तक
गांव-गांव में फैले खेत, खेतों में कुएं सब उसके हैं। साल में तीन फसलें होती हैं। जमीन
सोना उगलती है। लेकिन उस अपार संपत्ति के बावजूद चनाब के पानी में नहाकर लौटती
हुई शाहनी को कुछ भयावह-सा लग रहा है। इसी भयावहता की अनुभूति में वह उस शेरा
को पुकारती है, जिसे उसने पालपोसकर बड़ा किया है। शाहनी की आवाज उसे हिला गयी
क्योंकि उसके मन में पाप है। वह द्वंद्वग्रस्त है। एक ओर उसके मन में शाहनी के प्रति
प्रतिहिंसा की भावना है, जो इन शब्दों में व्यक्त होती है, "क्या कह रही है शाहनी आज !
आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा। क्यों न हो? हमारे
ही भाई-बंदों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियां तोला करते थे।" दूसरी ओर वह
शाहनी के प्रति उसके उपकारों से कनौड़ा है। इसलिए जब शाहनी की ओर दखता है तो
“नहीं-नहीं। शेरा, इन पिछले दिनों तीस-चालीस क़त्ल कर चुका है पर वह ऐसा नीच
नहीं।" शेस का यह द्वंद्व मनुष्यता और बर्बरता का, कृतज्ञता और लोभ का द्वंद्व है।
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