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(राग विहाग)
सखी री ब्रज को बसवो नीकौ।
बछड़ा गाय चरावत वन में, कानह सबन कोटी कौ॥ [1]
वृन्दावन में होत कुलाहल, गरजत सुर मुरली कौ।
ठाड़े लाल कदम्ब की छैय्या, माँगत दान दही कौ॥ [2]
उपजत है अति प्रीत उर अन्तर गावत जस हरि जू कौ।
'सूरदास' प्रभु मिल है गिरधर, यह जीवन सबही कौ॥ [3]
श्री सूरदास
हे सखी, ब्रज वास बहुत ही नीको [उत्तम] है।
यहाँ श्री कृष्ण गाय एवं बछड़े चराते हैं एवं वन में विहरण करते हैं। [1]
जब वह मुरली बजाते हैं तो समस्त ब्रज के जीव उत्साहित हो उठते हैं एवं श्री कृष्ण कदम्ब के वृक्षों की छाया में विराज कर गोपियों का मार्ग रोककर दूध एवं दहीं का दान मांगते हैं। [2]
श्री कृष्ण का यश गाने से उनके प्रति प्रीती बढ़ती है। सूरदास जी कहते हैं कि जैसा अवसर उन्हें मिला है श्री कृष्ण का गुणगान करने का, ऐसा ही अवसर सब को प्राप्त हो, तभी जीवन की सार्थकता है। [3]