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उत्तराखण्ड के लोगो का जीवन संघर्ष, ज़मीनी हकीकत।(The People of Uttarakhand & The Harsh Reality) Hindi
पलायन, मानव संघर्ष । उत्तराखण्ड (पूर्व नाम उत्तरांचल), उत्तर भारत में स्थित एक राज्य है जिसका निर्माण ९ नवम्बर २००० को कई वर्षों के आन्दोलन के पश्चात भारत गणराज्य के सत्ताइसवें राज्य के रूप में किया गया था। सन २००० से २००६ तक यह उत्तरांचल के नाम से जाना जाता था। ... हिन्दी और संस्कृत में उत्तराखण्ड का अर्थ उत्तरी क्षेत्र या भाग होता है। जब से उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया है, तब से निरंतर पलायन बढ़ता ही जा रहा है. पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के हजारों गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं.
वहीं 400 से अधिक गांव ऐसे हैं, जहां 10 से भी कम नागरिक हैं. विकट भौगोलिक संरचना वाले उत्तराखंड में पलायन बड़ी समस्या के रूप में सामने आया है. जब से उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया है, तब से निरंतर पलायन बढ़ता ही जा रहा है. पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के हजारों गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं. वहीं 400 से अधिक गांव ऐसे हैं, जहां 10 से भी कम नागरिक हैं. आयोग की पहली रिपोर्ट के अनुसार 2011 में उत्तराखंड के 1034 गांव खाली थे. साल 2018 तक 1734 गांव खाली हो चुके थे. राज्य में 405 गांव ऐसे थे, जहां 10 से भी कम लोग रहते हैं. प्रदेश के 3.5 लाख से अधिक घर वीरान पड़े हैं,
जहां रहने वाला कोई नहीं. पलायन करने वालों में 42.2 फीसदी 26 से 35 उम्रवर्ग के युवा हैं. पलायन आयोग के अध्यक्ष एसएस नेगी ने कहा कि रोजगार के साधनों का अभाव युवाओं के पलायन का मुख्य कारण है. रोजगार के नाम पर पहाड़ों पर कुछ भी नहीं है, जिसके कारण युवा रोजी-रोटी की तलाश में बड़े शहरों का रुख करने को विवश हो रहे हैं. उत्तराखंड में पलायन की त्रासदी पर हाल में जारी की गई रिपोर्ट ने 18 बरस पूर्व उत्तर प्रदेश के पर्वतीय जिलों को मिलाकर एक हिमालयी प्रदेश के गठन के बाद शासन-प्रशासन की दिशाहीनता और विकास के दावों की कलई खोल दी. रिपोर्ट में उत्तराखंड के उन 14 मानव शून्य गांवों की तस्वीर भी बयान की गई है जो तिब्बत और नेपाल की सीमा पर बसे हैं.
हालांकि उत्तराखंड के गांवों में रोजगार और शिक्षा के अभाव में लोगों का पलायन 60 से 80 के दशक से ही गति पकड़ता रहा जो कि राज्य बनने के पहले और बाद में गति पड़ता रहा. पर्वतीय लोगों की पहचान को संरक्षित करने, रोजगार, शिक्षा व स्वास्थ्य और विकास का मॉडल यहां के भौगोलिक परिवेश की तर्ज पर ढालना ही पर्वतीय राज्य के आंदोलन और राज्य बनाने के मकसद की मूल अवधारणा थी. लेकिन सालों में इस राज्य की सरकारों ने इन लक्ष्यों को पाने के लिए कैसे काम किया, पलायन आयोग की रिपोर्ट उसी नाकामी का दस्तावेज है.
कुल 53,483 वर्ग किमी के क्षेत्र में हिमाचल, तिब्बत, नेपाल और तराई में उत्तर प्रदेश से सटे उत्तराखंड के सुदूर गांवों से पलायन कोई एक दिन या रातों रात नहीं हुआ. अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं के आसपास के गांवों के खंडहर में तब्दील हो जाने से राष्ट्रीय सुरक्षा का एक बड़ा सवाल भी पैदा हो गया. अतीत से अंतर्राष्ट्रीय सीमा क्षेत्रों के ये गांव देश की सीमाओं के लिए सुरक्षा ढाल की तरह थे. बाहरी घुसपैठ या आक्रमण की सूरत में सदियों से इन गांवों के वाशिदें ही सेना व सुरक्षा बलों के लिए बीहड़ रास्तों और भौगोलिक स्थिति समझने का बड़ा सहारा बनते थे. भारत-चीन सीमा से जुड़ी 3,488 किमी की वास्तविक नियंत्रण रेखा इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है. जुलाई 2017 में चमोली के बाराहोती क्षेत्र में चीनी सेना घुसपैठ कर चुकी है.
1962 की लड़ाई में ही चीन ने अक्साई चिन क्षेत्र पर कब्जा जमाया था. अब खतरा यह है कि पहाड़ों में पलायन के कारण वहां आबादी घटने का क्रम इसी तरह जारी रहा और गैर पर्वतीय लोगों का वहां बसने का सिलसिला ऐसे ही चला तो 10 साल बाद उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्य में वहां के मूल लोगों के अल्पमत में आने से इस हिमालयी राज्य के गठन की पूरी अवधारणा ही ध्वस्त हो जाएगी. पलायन के कारणों की विभिन्न वजहों का रिपोर्ट में महज जिक्र किया गया. सब लोग और सरकार चलाने वालों के लिए आयोग की रिपोर्ट में उल्लिखित की गई बातों में नया कुछ भी नहीं है. दो तरह का पलायन सब लोगों को दिखता है. एक तो लोग हमेशा के लिए ही उत्तराखंड छोड़ चुके. उनके घर और गांव बंजर हो चुके.
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