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द्वापर युग का समय चल रहा था. भगवान श्री कृष्ण के रूप में महाविष्णु अपने आठवा अवतार में जन्म ले चुके थे. सभी देवता, भगवान, सुर, ऋषिमुनी भेस बदलकर एक-एक करके बाल कृष्ण से मिलने आ रहे थे.
वह देख भगवान शिव के मन में भी अपने प्रिय प्रभु से मिलने की इच्छा उत्पन्न हुई. पर वह यह सोच कर रुके हुए थे. की बाल कृष्ण के लिए उपहार के रूप में क्या दिया जाये. जिसे वह हमेशा अपने पास रख सके.
तब शिवजी को याद आया की उनके पास महान ऋषि दधीचि की वज्र की अस्थी (हड्डी) रखी हुई है. ऋषि दधीचि वह ऋषि है जिन्होंने राक्षस एवं असुरों के संहार के लिए. अपनी आत्मा त्याग कर. अपनी वज्र की हड्डिया देवताओं को दान दी थी.जिस ऋषि विश्वकर्मा ने कुछ हतियार बनाये थे.
उस बच्ची हुई एक हड्डी को तराशकर भगवान शिवजी ने एक अत्यंत सुंदर बांसुरी बनाई. फिर जब वह बालक भगवान कृष्ण से मिले तब उन्होंने वही बांसुरी उन्हें भेट करदी. वो सुंदर भेट कृष्ण भगवान को बहुत पसंद आयी.
शिव और कृष्ण भगवान के बिच स्नेह देखकर.उस दिन देवताओं ने भगवान कृष्ण को बांसुरीवाला इस नामसे गौरवान्वित किया. उसी बांसुरी को ही कृष्णा भगवान के अपने अवतार काल के अधिकतम समय हमेशा अपने साथ रखा।
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