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Siddhpeeth Chhachi Kuan Temple Lucknow
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Camera & Graphics : Ashok Tiwari
#UP tourism Place in Lucknow
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पुराने लखनऊ में मेडिकल कालेज चौराहे के पास छाछी कुआं में बना हुआ हनुमान जी का मन्दिर बहुत प्रसिद्ध है। सोलहवीं शताब्दी में यहां पर घना जंगल हुआ करता था और इस सघन वन में एक कुआं था जो बनजारों का कुआं के नाम से प्रसिद्ध था। इस कुएं के निकट कुछ खण्डहर थे जिससे यहां कभी मन्दिर होने के अवशेष भी प्राप्त हुए थे। सन 1585 में अयोध्या से बाबा परमेश्वर दास जी पैदल यात्रा करते हुए लखनऊ आये और उन्होंने इस कुएं के पास एक वृक्ष के नीचे अपना डेरा डाल दिया और आराधना करने लगे। बताया जाता है कि एक दिन महात्मा जी का कमण्डल इसी कुएं में गिर गया। कमण्डल के बिना बाबा महाराज की साधना में बाधा पड़ने लगी। दिन
भर की प्रतीक्षा के बाद शाम को कुछ दूध वाले अपनी गांय भैस को लेकर निकले और उन लोगों के सहयोग से बाबा का कमण्डल निकालने का प्रयास किया गया। कुछ ग्वाले बस्ती से रस्सी कांटा लाये जिसे कुएं में डालकर कमण्डल ढूंढा जाने लगा। बहुत देर तक ढूंढे जाने के बाद भी जब कमण्डल न मिला तो बाबा जी स्वयं उठकर रस्सी कांटे से कमण्डल
निकालने लगे। तभी यह चमत्कार हुआ कि कमण्डल के साथ अटकी हुई बजरंगबली की बारह भुजी दुर्लभ मूर्ति चली आयी। दूसरी बार फिर पानी निकालने के लिए कमण्डल डाला जिसमें पानी की जगह छाछ से भरा हुआ कमण्डल ऊपर आया जिसे बाबा जी ने पुनः कुएँ में पलट दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि तीन दिन तक उस कुएं में छाछ की तरह का जल
निकलता रहा जिसे तमाम लोगों ने दूर-दूर से आकर चरणामृत के रूप में ग्रहण किया इसके बाद से यह स्थान छाछी कुआँ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
चौथे दिन कुएं का जल बदल गया और तब पानी इतना खारा हो गया कि उसे मुंह से लगाना भी कठिन था। ये जल मन्दिर के भोग या पीने के योग्य भी नही था जो बर्तन इसमें डाला जाता था वो काला हो जाता था।
मन्दिर में प्रतिष्ठित छोटी मूर्ति वही है जो उस कुएं से प्रकट हुई थी। यह मूर्ति कितने प्राचीन समय से यहां प्रतिष्ठित थी और इसको किस समय विधर्मियों के हाथों से बचाने के लिए कुएं में छुपाया गया कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रमुख मूर्ति के साथ की बड़ी प्रतिमा भी प्राचीन है और उसे स्वयंभू विग्रह माना जाता है। इसकी प्रतिष्ठा भी उसी रात को की गयी थी इन
मूर्तियों की बनावट में भी कुछ विशेष है जो अन्य स्थानों के विग्रहों में नहीं मिलते।
रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी भी इस स्थान पर पधारे और कई दिनों तक यहां वास किया। तुलसीदास जी बाबा परमेश्वरदास जी के समकालीन थे। यह प्रथम महंत संवत् 1684 में 120 वर्ष की आयु प्राप्त कर मारुति पदलीन हो गये। इस मंदिर की महंत परम्परा में अब तक 14 से 15 गद्दियां हो चुकी हैं। सन् 1931 में आये भूकम्प के प्रभाव से इस मंदिर के कुएं का जल बहुत कुछ सुधर गया था, फिर सन् 1955 में उसका पूरी तरह से शोधन किया गया और इसी उद्देश्य से यहां पर रामायण महायज्ञ सम्पन्न हुआ। यहां पर तुलसीदास के अहाते के साथ एक पुराना और एक नया ठाकुरद्वारा भी है।