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धर्म दो चार होते ही नहीं। सृष्टि में है एक भगवान और एक ही उन्हे धारण करने की विधि। और उस विधि का आचरण ही धर्माचरण है।
ईश्वर की प्राप्ति की निर्दिष्ट क्रिया का आचरण धर्म है-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥१८/६६॥
धार्मिक उथल-पुथल को छोड़ एकमात्र मेरी शरण हो जा अर्थात् एक भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण ही धर्म का मूल है, उस प्रभु को पाने की नियत विधि का आचरण ही धर्माचरण है (अध्याय २, श्लोक ४०) और जो उसे करता है वह अत्यन्त पापी भी शीघ्र धर्मात्मा हो जाता है (अध्याय ९, श्लोक ३०)।
इस विधि का सम्पूर्ण शास्त्र श्रीमद्भागवद गीता है जिसकी यथावत व्याख्या “यथार्थ गीता है”।
Dated: 28-12-2012
Place: VIJAYPUR
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