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‘जाति है कि, जाती नहीं.’ जाति व्यवस्था का ये सच जितना देश भर में लागू होता है, उतना ही उत्तराखंड में भी. जब कभी लगता है कि समाज प्रगतिशील हो गया है, तभी अखबार में खबर पढ़ने को मिलती है, जिसका शीर्षक होता है, ‘वोटों को साधने के लिए ठाकुर बनेगा सीएम तो प्रदेश अध्यक्ष बनेगा ब्राह्मण.’ ऐसी खबरें पढ़ते ही दिल टूट सा जाता है. ऐसा भी नहीं है कि सभी की सोच दक़ियानूसी है. नई पीढ़ियों में जाति की श्रेष्ठता से ज्यादा कॉमन-सेंस की श्रेष्ठता ट्रेंड करने लगी है. लोगों को समझ आने लगा है कि पढ़ाई करके कोई भी बौद्धिक बन सकता है, कसरत करके कोई भी बलवान बन सकता है और सांस्कृतिक वाद्य यंत्रों को अगर सबने मिलकर नहीं संजोया, तो फिर आने वाले दिनों के शुभ-कार्यों में यू-ट्यूब से बरातियों को नचाने की नौबत आ जायेगी. क्योंकि गाने और बजाने वाला तो कोई होगा नहीं. अब सवाल ये उठता है कि जिस जाति ने यहां के समाजिक ताने-बाने में इतनी गहरी पैठ बनाई हुई है, वो जाति व्यवस्था उत्तराखंड में कब आई, क्यों आई और वक्त के साथ उसकी जड़े इतनी गहरी क्यों हो गई? आइए आज हम तमाम इतिहासकारों और शोधकार्यों का हवाला देते हुए आपको बताते हैं कि उत्तराखंड में जाति व्यवस्था का पूरा तानाबाना आखिर कैसे बना.
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