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ढोल गंवार सूद्र पसु नारी - सबने गलत अर्थ किया है / Dhol ganvaar sudra pashu naari
इसके साथ एक और चौपाई जिसको विवादित बना दिया गया है उसके अर्थ को भी समझे
पूजिअ विप्र सील गुण हीना,
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रवीना ॥
यदि इस चौपाई को भी समझना है तो नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।
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• तुलसीदास जी ने शील और ...
अब इस वीडियो के संबंध में यह चीजें भी अवश्य पढ़े ताकि आपके सारे संशय मिट जाएं।
लालयेत् पंच वर्षाणि ,दश वर्षाणि ताडयेत् ।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे ,पुत्र मित्रवत् आचरेत् ।।
( चाणक्य नीति )
यहां पर भी पड़ने का मतलब पीटना ही है लेकिन फिर भी कुछ अतिरिक्त बुद्धिमान लोग यहां पर भी इसे देखना ही बताएंगे
यह दावा करते यहां पर अलग अर्थ है या प्रत्येक के साथ ताडना का अलग अर्थ निकल रहा है तो फिर भी कुछ लगने वाली बात थी
अब पहले जाने की इस श्लोक के बारे में क्या कहेंगे...
न वै ताडनात् तापनाद् वह्निमध्ये,
न वै विक्रयात् क्लिश्यमानोऽहमस्मि ।
सुवर्णस्य मे मुख्यदुःखं तदेकं ।
यतो मां जनाः गुञ्जया तोलयन्ति ॥
[ ताडनात् = पीटने से। वह्निमध्ये तापनाद् = आग में तपाने से। विक्रयात् = बेचने से। क्लिश्यमानोऽहमस्मि (क्लिश्यमानः + अहम् + अस्मि) = मैं दु:खी नहीं हूँ। तदेकं (तत् + एकम्) = वह एक है। गुञ्जया = रत्ती से, गुंजाफल से। तोलयन्ति = तौलते हैं। ]
प्रसंग-प्रस्तुत श्लोक में स्वर्ण के माध्यम से विद्वान् और स्वाभिमानी पुरुष की व्यथा को अभिव्यक्ति दी गयी है।
अनुवाद-मैं (स्वर्ण) ने पीटने से, न आग में तपाने से और न बेचने के कारण दु:खी हैं। मुझे तो बस एक ही मुख्य दु:ख है कि लोग मुझे रत्ती (चुंघची) से तौलते हैं।
भाव-विद्वान् स्वाभिमानी पुरुष विपत्तियों से नहीं डरता है। उसका अपमान तो नीच के साथ उसकी तुलना करने में होता है। तात्पर्य यह है कि शारीरिक कष्ट उतना दु:ख नहीं देते, जितनी पीड़ा मानसिक कष्ट पहुँचाते हैं।
अब यहां कुछ साइंटिस्टों को इस बात से भी दिक्कत हो जाएगी की यह नीच शब्द का प्रयोग क्यों किया गया
क्या आप चोर को नीच नहीं कहेंगे
डकैत को नीच नहीं कहेंगे
जाति की नहीं यहां बात गुण की हो रही है
अब सोना और रत्ती को एक भाव बेचा जा सकता है क्या?
जब तक हम अक्ल के अंधे बनकर रहेंगे तब तक कोई चीज समझ में नहीं आएगी
रामचरितमानस को ना आगे से पढ़ना न पीछे न पीछे से पढ़ना
प्रसंग का कुछ पता नहीं है
बस एक चौपाई को लेकर विद्वान बन जाते हैं
तुलसीदास जी रचित रामचरित मानस में नारियों को सम्मान जनक रूप में प्रस्तुत किया है। जिससे ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ ही सिद्ध होता है। नारियों के बारे में उनके जो विचार देखने में आते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:
जननी सम जानहिं पर नारी ।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।
अर्थात जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपनी मां सामान समझता है, उसी के हृदय में भगवान का निवास स्थान होता है।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।
नारी सिखावन करसि काना ।।
अर्थात भगवान राम सुग्रीव के बड़े भाई बाली के सामने स्त्री के सम्मान का आदर करते हुए कहते हैं, दुष्ट बाली तुम अज्ञानी पुरुष तो हो ही लेकिन तुमने अपने घमंड में आकर अपनी विद्वान् पत्नी की बात भी नहीं मानी और तुम हार गए।
मतलब अगर कोई आपको अच्छी बात कह रहा है तो अपने अभिमान को त्यागकर उसे सुनना चाहिए, क्या पता उससे आपका फायदा ही हो जाए।
चाहे कोई भी हो। तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। उनका सबसे प्रचलित दोहा जिसे सबने अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हमेशा विवादों के घेरे में आ जाता है। कई महिला संगठनों ने तो इसका घोर विरोध भी किया।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥
कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते हैं।
सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया?
और तो और- तुलसीदास जी ने तो-
एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है।
साथ ही सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है।
सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षस रूपी नारी को भी हनुमान द्वारा माता कहना,
कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है
ऐसे में तुलसीदासजी के शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है ऐसा तो आसानी से हजम नहीं होता।
इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है वो तो और कुछ ही दर्शाते हैं।
राजा दशरथ ने स्त्री के वचनों के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।
परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग नहीं समझ पाते हैं।
और बस अपने छोटे विवेक के अनुसार आलोचना शुरू कर देते हैं
यह देखे बगैर कि तुलसीदास जी का स्तर क्या है और हमारा अर्थात आलोचकों का स्तर क्या है।
यदि हम रामचरितमानस को क्रमबद्ध तरीके से ध्यान से पढ़ें तो ही हम रामचरितमानस को भी समझ सकते हैं
और तुलसीदास जी को भी
लेकिन या तो हमारे स्वाध्याय में कमी है
या हमारी समझ में।
#Ramcharitmanas
#रामचरितमानस
@AnandDhara