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"ज्ञान-अज्ञान" की भूमिका इस अध्याय में ज्ञान-अज्ञान की सात भूमिकाओं का उल्लेख है। महर्षि ऋभु अपने पुत्र से कहते हैं कि 'अज्ञान' और 'ज्ञान' की सात-सात भूमिकाएँ हैं। अहं भाव 'अज्ञान' का मूल स्वरूप है। इसी से 'यह मैं हूं और यह मेरा है' का भाव उत्पन्न होता है। अज्ञान से ही राग-द्वेषादि उत्पन्न होते हैं और जीव मोहग्रस्त होकर आत्म-स्वरूप से परे हट जाता है।
ज्ञान की पहली भूमिका 'शुभेच्छा' से प्रारम्भ होती है। सत्संगति से वैराग्य उत्पन्न होता है, सदाचार की भावनाएं जाग्रत होत हैं और भोग-वासनाओं की आसक्ति क्षीण हो जाती है। ज्ञानी जन सत्कर्मों में संलग्न रहकर सनातन सदाचरण की परम्परा का निर्वाह करते हैं। ऐसे ज्ञानी पुरुष देहत्याग के पश्चात् 'मुक्ति' के अधिकारी होते हैं।
ॐ शान्ति विश्वम।।