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उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में आपने अक्सर छोटे-छोटे मंदिर देखे होंगे. कभी सड़क के किनारे तो कभी गांव को जाती किसी पगडंडी के पास और कभी गाड़-गदेरों के किनारे तो कभी दूर किसी पहाड़ी चोटी पर स्थित, आड़े-तिरछे पत्थरों से बने छोटे-छोटे मंदिर. न तो इन मंदिरों में बद्रीनाथ या केदारनाथ के मंदिरों जैसी विशालता और भव्यता होती है, न जागेश्वर या बैजनाथ के मंदिरों जैसे निर्माण शैली और न ही कोई भौतिक आकर्षण. छोटे-बड़े पत्थरों या हद से हद सीमेंट से बने, बमुश्किल दो बाई दो के इन मंदिरों में किसी चर्चित देवता की तस्वीर या मूर्ति तक नहीं होती है. न तो ये मंदिर भगवान शिव के होते हैं, न विष्णु या श्री राम के और न ही भगवती या काली के. तो आख़िर ये मंदिर होते किन देवताओं के हैं? क्या है इन मंदिरों का इतिहास? क्यों ये पहाड़ के कोने-कोने में सदियों से पूजे जाते हैं और क्यों इन मंदिरों को स्थानीय लोग इतना प्रभावशाली मानते हैं कि यही मंदिर उनके लिए न्याय की अंतिम उम्मीद भी होते हैं, तो रुष्ट होने पर दोष लगाने वाली सबसे ख़तरनाक शक्ति भी.
इन मंदिरों को असल में थान या मंडुला कहा जाता है. ये उन लोक देवताओं के पूज्य स्थल होते हैं जिन्हें भुम्याल देवता भी कहते हैं. भुम्याल का अर्थ हुआ भूमि के देवता. यानी वो देवता जो स्वर्ग में नहीं बल्कि यहीं इसी धरती पर, आम लोगों के बीच ही निवास करते हैं और आम लोगों पर ही अवतरित भी होते. पहाड़ों में जगह-जगह जो छोटे-छोटे थान नजर आते हैं, वो इन्हीं स्थानीय देवताओं के हैं जिनमें नरसिंह, नागरजा, घण्डियाल या घंटाकर्ण, क्षेत्रपाल और भैरू या भैरव देवता के थान प्रमुख हैं.
William S Sax विलियम एस सैक्स
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