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विद्याध्ययन का बंधन कैसा होता है?
किताबी ज्ञान क्यों खोखला होता है?
तर्क-युक्ति की निःसारता कैसे समझे?
विद्या का यथार्थ उद्देश्य क्या है? - जानिए श्री रामकृष्ण परमहंस के वचनो से |
Learn from a great enlightened soul Shri Ramakrishna Paramhansa
आप जो भी इस वीडियो में सुन रहे हैं, वो "अमृतवाणी" पुस्तक से ली गयी है। ये पुस्तक श्री रामकृष्ण देव के वचनो का संकलन है |
अमृतवाणी - भाग ७ || Amritwani - Part 7
एक दिन केशवचन्द्र सेन दक्षिणेश्रर आए और उन्होंने श्रीरामकृष्णदेव से पूछा, “बहुत से पण्डित शास्त्रों का समूचा पुस्तकालय ही पढ़ डालते हैं, परन्तु फिर भी उनमें आध्यात्मिक जीवनसम्बन्धी इतना घना अज्ञान कैसे बना रहता है?” इस पर श्रीरामकृष्णदेव ने उत्तर दिया, “चील-गिद्ध बहुत ऊँचा उड़ते हैं, पर उनकी नजर मरे जानवरों की सड़ीलाश पर गड़ी रहती है। इसी प्रकार, अनेक शास्त्रों का पाठ करने के बावजूद इन तथाकथित पण्डितों का मन सदा सांसारिक विषयों में, कामिनी-कांचन में आसक्त रहता है; इसीलिए उन्हें ज्ञानलाभ नहीं होता।”
जिस ज्ञान से चित्तशुद्धि होती है वही यथार्थ ज्ञान है, बाकी सब अज्ञान है।
कोरे पाण्डित्य से क्या लाभ? पण्डित को बहुत सारे शास्त्र, अनेकों श्लोक मुखाग्र हो सकते हैं, पर वह सब केवल रटने और दुहराने से क्या लाभ? अपने जीवन में शात्रों में निहित सत्यों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होनी चाहिए। जब तक संसार के प्रति आसक्ति है, कामिनी-कांचन पर प्रीति है, तब तक चाहे जितने शास्त्र पढ़ो, ज्ञानलाभ नहीं होगा, मुक्ति नहीं मिलेगी।
तथाकथित पण्डित लोग बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। वे ब्रह्म, ईश्वर, निर्विशेष सत्ता, ज्ञानयोग, दर्शन और तत्त्वज्ञान आदि कितने ही गूढ़ विषयों की चर्चा करते हैं। किन्तु उनमें ऐसों की संख्या बहुत कम है, जिन्होंने इन विषयों की उपलब्धि की है। उन लोगों में अधिकांश ही शुष्क और नीरस होते हैं, वे किसी काम के नहीं।
मृदंग या तबले के बोल मुँह से निकालना आसान है, किन्तु प्रत्यक्ष बजाना कठिन। इसी तरह धर्म की बातें कहना तो सरल है, किन्तु आचरण में लाना कठिना
वैसे तो तोता दिनभर “राधाकृष्ण” रटता है, परन्तु जब बिल्ली धर दबाती है तो वह “राधाकृष्ण” भूलकर 'टें टें" करने लगता है। वैषयिक सुख-समृद्धि की आशा से संसारी लोग भी बीच-बीच में हरिनाम लेते हैं और दान-धर्म आदि पुण्यकर्म क्रिया करते हैं; परन्तु दुःख-दैन्य-विपत्ति या मृत्यु का समय आते ही वे यह सब भूल जाते हैं।
क्या धार्मिक ग्रन्थ पढ़कर भगवद-भक्ति प्राप्त की जा सकती है? पंचांग में लिखा होता है कि अमुक दिन इतना पानी बरसेगा; परन्तु समूचे पंचांग को निचोड़ने पर तुम्हें एक बूँद भी पानी नहीं मिलता! इसी प्रकार, पोधियों में धर्मसम्बन्धी अनेक बातें लिखी होती हैं, पर उन्हें केवल पढ़ने से धर्मलाभ नहीं होता, उसके लिए तो इन तत्त्वों को लेकर साधना करनी होती है।
ईश्वर के राज्य में विद्या, बुद्धि, युक्ति आदि का विशेष मूल्य नहीं। वहाँ तो गूँगा बोलता है, अन्धा देखता है और बहरा सुनता है।
केवल शास्त्र पढ़कर ईश्वर के बारे में समझाना मानो नक्शे में काशी देखकर किसी के आगे काशी का वर्णन करना है।
“भाँग भाँग” कहकर कितना भी चिल्लाओ, उससे नशा नहीं चढ़नेवाला। भाँग ले आओ, उसे घोंटो, पियो, तभी उसका नशा चढ़ेगा। सिर्फ “भगवान भगवान्” कहकर चिल्लाने से क्या लाभ? नियमित रूप से साधना करो, तभी तुम्हें सिद्धि मिलेगी।
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