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Raag Madhuvanti (Part - 1)-Indian classical music online live Riyaz Session by Guruji Sanjay Dewale

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swar sanskar

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Күн бұрын

राग मधुवन्ती राग मधुवन्ती एक आधुनिक राग है । आजकल गायक तथा वादक दोनों ही इछ राग से बहुत अधिक प्रभावित है । सुविश्रुत राग मुल्तानी में रिषभ धैवत शुद्ध कर देने से राग मधुवन्ती का आविर्भाव होता है । जब हम उत्तर भारतीय दस घाटों पर एक विहंगम दृष्टि डालते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि प्रस्तुत राग इनमें से किसी भी थाट के अन्तर्गत वस्तुतः नहीं आ सकता है । परन्तु इसका चलन बहुत कुछ मुल्तानी जैसा है और मुल्तानी राग तोड़ी घाट के अन्तर्गत आता है , अतः मधुवन्ती को भी गुणिजन तोड़ी बाट के अन्तर्गत मान लेते हैं । परन्तु लेखक इस मत से सहमत नहीं हैं । अतः लेखक के विचार से प्रस्तुत राग को केवल मुलतानी अंग का राग मानना ही अधिक उचित होगा । यदि इसे थाट वर्गीकरण के अन्तर्गत ही मानना है तो इसे व्यंकटमखी के ७२ घाटों में से धर्मवती थाट के अन्तर्गत मान सकते हैं । इसमें गंधार कोमल , मध्यम तीव्र तथा अन्य स्वर शुद्ध लगते हैं । मधुवन्ती के आरोह में रिषभ धैवत वर्ण्य तथा अवरोह में सातों स्वरों का प्रयोग होता हैं , इसलिये इसकी जाति औडव - सम्पूर्ण है । इस राग में पंचम वादी तथा रिषभ सम्बादी है । वस्तुतः सभी विद्वान मुक्त कन्ट से पंचम को यादित्व प्रदान करते हैं , परन्तु सम्बादी स्वर के सम्बन्ध में सभी विद्वान एक मत नहीं हैं । कतिपय विद्वान षडज को संवादित्व प्रदान करते हैं । परन्तु लेखक के विचार से रिषभ को सम्बादित्व प्रदान करना अधिक न्यायोचित होगा , क्योंकि पूर्वांग में सबसे अधिक इस राग में रिषभ ही चमकता है । रिषभ के प्रयोग से यह राग खिल उठता है । पडज तो वस्तुतः सभी रागों का महत्वपूर्ण स्वर है , उसे तभी वादित्व या संवादित्व प्रदान करना चाहिये जब कि अन्य किसी स्वर को यह स्थान प्रदान करने की गुंजाइश न हो । प्रस्तुत राग का गायन समय बारह बजे दिन से लेकर ४ बजे दिन तक हैं । कुछ विद्वान लोग इसे रात में भी गाते - बजाते हैं । इसका विस्तार मध्य सप्तक में अधिक किया जाता है । इस राग में कतिपय विद्वान केवल कोमल निषाद का प्रयोग करते हैं , परन्तु कुछ विद्वान दोनों निषाद का प्रयोग करते हैं । परन्तु प्रचार में मधुवन्ती राग में केवल शुद्ध निषाद का ही प्रयोग अधिक मान्य है । धैवत और रिषभ का प्रयोग इस राग में बहुत ही कर्ण प्रिय है । प्रस्तुत राग में न्यास के स्वर षडन , गंधार , पंचम और निषाद हैं । प्रस्तुत राग में रिषभ में षडज का कण और गंधार में तीन मध्यम का कण लगाने पर पूरा ध्यान देना चाहिये , क्योंकि इसी से यह राग सजता है \
इस राग में - सा मंगऽ म ग प , ग म प , सा में ग , म ग प । इस प्रकार के स्वर समूह से कुछ मुल्तानी का आभास होने लगता है , परन्तु इसमें - ग सा रे सा और म प ध प , इस प्रकार शुद्ध रिषभ तथा शुद्ध धैवत का प्रयोग करने से मुल्तानी का आभास दूर हो जाता है । इसके अतिरिक्त उत्तरांग में जब ए नी सां , गं सां रें सां , नी सां घऽ प , इस प्रकार के स्वर समूह का प्रयोग करते हैं तो पटदीप राग समक्ष आता है , परन्तु नी सां ध प के आगे ध म प स्वर स्वर समूह जोड़ने से पटदीप की छाया दूर हो जाती है । इस प्रसंग में यह तथ्य स्मरणीय है कि जब मधुवन्ती में नी सां ध स्वर संगति का प्रयोग करें तो सांध के पश्चात् अधिकतर पंचम को न लेकर तीव्र मध्यम का प्रयोग करने के बाद पंचम को आगे लावें जैसे- नी सां ध म प , इस प्रकार के प्रयोग से प्रस्तुत राग पटदीप से दूर हो जायेगा । सां रें सां नी ध प म प , नी ध म प , इत्यादि स्वर समूह के प्रयोग से कल्याण व श्याम कल्याण का आभास होता है परन्तु कोमल गंधार के प्रयोग से इन सभी रागों का भ्रम दूर हो जाता है । प्रस्तुत राग का उठाव जब- नि सा ग सा रे सा इस स्वर संगति से करते हैं तो गंधार कभी भी दीर्घ नहीं करना चाहिये । क्योंकि गंधार दीर्घ करने से तत्काल राग पीलू की छाया आने लगेगी । इसलिये गंधार का प्रयोग सावधानी से करना चाहिये । ।प्रस्तुत राग में सा में ग प , प ग , सां घ , धर्म की स्वर संगति तथा नग , में मु की पुनरावृत्ति बार - बार होती है । पटदीप तथा मुल्तानी इसके समप्रकृति राम है । परन्तु मुल्तानी में रे ध कोमल होने से और पटदीप में मध्यम शुद्ध होने से ये दोनों राग मधुवन्ती सहज ही में भिन्न हो जाते हैं ।
प्रस्तुत विवरन मे जहाँ गंधार आया है वह कोमल ओर मध्यम तिवर है।

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