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“प्रभु ने मुझे भावरोग से बचने की औषधि दी है, उसका ऋण तो मैं कभी भी नहीं चुका पाऊँगी, फिर भी मेरा यह द्रव्य औषध प्रभु के द्रव्य रोग को दूर करने में निमित्त बने तो मैं धन्य बन जाऊँ।''
ऐसी शुभ भावना से भावित होकर रेवती ने प्रभु भक्ति से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । वे अनागत चौबीसी में 'समाधि' नाम के सत्रहवें
तीर्थंकर होंगी।
धन्य है सती रेवती को! धन्य है सिंह अणगार को!
धन्य है उनकी निःस्वार्थ और निर्दोष भक्ति को!