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बीकानेर राव जैतसिंह का इतिहास
राव लूणकरण के ज्येष्ठ पुत्र जैतसिंह थे। अपने पिता लूणकरण के युद्ध में मारे जाने पर यह बीकानेर के राव हुए। जब ढोसी नामक स्थान में पिता के मारे जाने का समाचार राव जैतसिंह के पास बीकानेर पहुंचा तो उसी समय उसने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उधर बीदावत उदयकरण के पुत्र कल्याणमल ने बीकानेर पर अधिकार करने की लालसा से शीघ्र ही बीकानेर की ओर प्रस्थान किया। परन्तु इसी बीच जैतसिंह ने गढ़ तथा नगर की रक्षा का समुचित प्रबन्ध कर लिया और कल्याणमल के आते ही उससे कहलाया कि वापस लौट जाओ। कल्याणमल ने इसके उत्तर में कहलाया कि मैं शोकप्रदर्शन करने के लिए आया हूँ, परन्तु जैतसिंह ने कल्याणमल के इस कथन पर विश्वास नहीं किया। इस पर कल्याणमल ने वहां से लौट जाने में ही बुद्धिमानी समझी।
इसके बाद जिन व्यक्तियों ने राव लूणकरण को धोखा दिया था, उनसे बदला लेने के लिए 4 अक्टूबर 1527 को राव जैतसिंह ने अपनी सेना द्रोणपुर पर चढ़ाई करने के लिए भेजी। कल्याणमल सेना का आगमन सुनते ही द्रोणपुर से भागकर नागौर के खान के पास चला गया। तब जैतसिंह ने द्रोणपुर की गद्दी पर बीदा के पौत्र सांगा को बैठा दिया।
इसके बाद जैतसिंह ने बीकानेर के कमाण्डर सांगा को एक सेना देकर सिंहाणकोट की ओर जोहियों के विरुद्ध भेजा, क्योंकि उनमें से बहुत जोहियों ने उसके पिता लूणकरण को धोका दिया था। इस आक्रमण में सांगा को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई और जोहियों का सरदार तिहुणपाल लाहौर की तरफ भाग गया।
इसके बाद जैतसिंह ने अपने भानजे सांगा कछवाहा की सहायता की थी। जैतसिंह की बहन बालाबाई आमेर के राजा पृथ्वीराज को ब्याही गई थी। राजा पृथ्वीराज के देहांत के बाद उनके पुत्र रत्नसिंह और सांगा में अनबन हो गई, जिससे सांगा आमेर छोड़कर बीकानेर में अपने मामा जैतसिंह के पास आ गया।
सांगा को आमेर से कोई जागीर वगैरह नहीं मिली तब उन्होंने अपने मामा जैतसिंह से अर्ज करके उनसे सैनिक सहायता मांगी। जैतसिंह ने एक सेना तैयार करके अपने भानजे सांगा के नेतृत्व में आमेर भेजी। आमेर पहुंच कर बीकानेर की सेना ने कर्मचंद नरूका को मारकर और आमेर के बहुत से भाग पर अधिकार कर लिया। सांगा ने आमेर के सिंहासन पर विराजमान रतनसिंह से युद्ध करना उचित नहीं समझा और अपने लिए सांगानेर नामक अलग नगर बसाकर वहां रहने लगा। इसके बाद सांगा को अपना अधिकार दिलाकर बीकानेर की फौज वापस लौट गई।
राव जैतसिंह ने जोधपुर के राव गांगा की सहायता भी की थी। कहते हैं कि जब राव सूजा जोधपुर की गद्दी पर थे, तब मारवाड़ के सभी बड़े-बड़े सरदार राव सूजा के बड़े पुत्र वीरम से अप्रसन्न रहते थे। इसलिए राव सूजा के मरने पर सभी सरदारों ने वीरम के स्थान पर राव सूजा के द्वितीय पुत्र बाघा के पुत्र गांगा को जोधपुर का राव बना दिया। परन्तु वीरम और उसका छोटा भाई शेखा अपने भतीजे गांगा को जोधपुर की गद्दी पर बैठा देख अप्रसन्न हो गये और विद्रोही बन बैठे।
तब राव गांगा ने पहले वीरम और उसके साथी महता रायमल को मार डाला। इसके बाद शेखा हरदास राठौड़ से मिल कर जोधपुर पर अधिकार करने का प्रपंच रचने लगा। तब गांगा ने अपने काका शेखा से सुलह करनी चाही परन्तु शेखा ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया वो तो बस जोधपुर का राव बनना चाहता था। इस पर राव गांगा ने बीकानेर के राव जैतसिंह से सहायता मांगी ताकि वो शेखा को मार कर शांति स्थापित कर सके। राव जैतसिंह के पास राव गांगा का संदेश पहुंचते ही वह अपनी सेना सहित जोधपुर पहुंच गए।
उधर शेखा ने नागौर के सरलेखान से सहायता मांगी। नागौर की सीमा पर के 200 गांव मिलने के वादे पर सरखेलखां और उसका पुत्र दौलतखां एक विशाल फ़ौज के साथ शेखा की मदद के लिए रवाना हुए और उन्होंने बिराई गांव में डेरा किया। राव गांगा ने एकबार वापस अपने काका शेखा से सन्धि करने का प्रयत्न किया, परन्तु शेखा ने इस बार भी ध्यान नहीं दिया। अगले दिन दोनों पक्षों में युद्ध हुआ और बीकानेर और जोधपुर की सेना ने ऐसा पराक्रम दिखाया कि शेखा और सरलेख़ान की सेना के पैर उखड़ गये। युद्ध मैदान में राव गांगा ने अपने धनुष से एक तीर छोड़ा, जो ख़ान के महावत को लगा । फिर राव जैतसिंह और सैनिकों ने मिलकर ख़ान के हाथी को घेर लिया और खान को पकड़ लिया। खान के पकड़े जाने के साथ ही सारी यवन सेना भी रणक्षेत्र छोड़ कर भाग गई। शेखा की पराजय हो गई और नागौर के खान का सारा सामान बीकानेर की फौज का हाथ लग गया। राव गांगा को विजय दिलाने के बाद राव जैतसिंह अपनी फौज के साथ वापस बीकानेर लौट आये।
इसके कुछ समय बाद ही बाबर के भाई कामरान ने बीकानेर पर चढ़ाई कर दी और राव जैतसिंह को युद्ध के लिए ललकारा। कहते हैं कि बाबर की मृत्यु होने पर उसका राज्य उसके पुत्रों में विभाजित हो गया, जिनमें से कामरान ने लाहौर को अपने अधिकार में कर लिया स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उस समय तक उत्तरी भारत के सभी छोड़े-बड़े राज्य मुग़लों के अधीन हो गये थे, केवल राठौड़ों का राज्य ही ऐसा बच रहा था, जिसकी स्वतंत्रता पर आंच नही आई थी। तब कामरान ने एक बड़ी फौज के साथ मारवाड़ की ओर मुख मोड़ा। सतलज नदी को पार करके भटिंडा तथा अबोहर के बीच से होकर मुग़ल सेना ने पहले भटनेर पर चढ़ाई कर उसे घेर लिया। भटनेर उन दिनों खेतसी राठौड़ के अधिकार में था।मुग़लों ने खेतसी पास अधीनता स्वीकार कर लेने के लिए दूत भेजे, परन्तु वीर खेतसी ने अधीनता स्वीकार नहीं की और युद्ध करने के लिए अपनी सेना को तैयार किया। तीरों और तोपों की वर्षा करते हुए जब मुगलों ने गढ़ की दीवार पर चढ़कर अन्दर प्रवेश करना प्रारम्भ किया, तब खेतसी ने द्वार खोल अपने राजपूत वीरों के साथ मुगलों पर टूट पड़ा और लड़ता हुआ मारा गया। फलस्वरूप भटनेर के गढ़ पर मुग़लों का अधिकार हो गया।
इसके बाद भटनेर को विजय कर कामरान की फौज बीकानेर की ओर रवाना हुई। जिसकी सूचना राव जैतसिंह को मिल गई। बीकानेर पहुंचकर मुग़लों ने अधीनता स्वीकार करने का पैग़ाम राव जैतसिंह को भेजा।