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असम और पश्चिम बंगाल राज्यों के सीमावर्ती इलाक़ों में बांग्लादेशियों और मूल स्थानीय निवासियों की पहचान एक मुश्किल काम है। इन इलाक़ों में सीमा के दोनों तरफ रहने वालों का रहन-सहन और भाषा एक जैसी है। यही वजह है कि यहां बाहरी बनाम स्थानीय नागरिकता का सवाल दशकों से सुलगता रहा है। तो दूसरी तरफ क्षेत्रीयता और देशी विदेशी से आगे बढ़कर साम्प्रदायिक संघर्ष का खतरा। और सबसे बड़ा मसला भारतीय नागरिकों के हितों की सुरक्षा का भी था। आखिरकार तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी सरकार और स्थानीय आंदोलनकारियों के साथ 1985 में मसले के हल के लिए एक समझौता हुआ। ये था असम समझौता। यही असम समझौता आजकल फिर चर्चा में है। वजह है नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस यानी एनआरसी। असम में एनआरसी का दूसरा और आखिरी मसौदा जारी हुआ जिसमें 40 लाख लोगों के भविष्य को लेकर तरह तरह की अटकलें चल रही हैं। विपक्षी दल सरकार पर तमाम आरोप लगा रहे हैं तो सरकारी पक्ष का कहना है कि एनआरसी दरअसल असम समझौते की आत्मा है और इसी के तहत सारा काम हो रहा है। ये मसला इसलिए भी अहम है क्योंकि आज भी लाखों अवैध प्रवासी न सिर्फ स्थानीय लोगों के हितों के लिए बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी चुनौती बने हुए हैं। ऐसे में आज विशेष में बात होगी असम समझौते की। जानेंगे क्या था ये समझौता, किन परिस्थितियों में ये हुआ और एनआरसी की जरुरत क्यों पड़ी।
Anchor - Deepak Dobhal
Production - Akash Popli
Graphics - Nirdesh, Girish, Mayank
Editing - Pitamber Joshi, Harish, Chandan