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आज हम भारत भूमि पर सफेद हूणों के आतंक, विशेषकर मिहिरकुल की बात करेंगे जिसे बौद्ध मत के सबसे बडे विरोधियों में भी गिना जाता है। मिहरकुल के कार्य विभत्स हैं परंतु उसकी चर्चा कम होती है, उसके वृतांत को वैसे ही उपेक्षित और जानते बूझते अल्पचर्चित रखा गया है जैसे नालंदा के विद्ध्वंसक बख्तियार खिलजी को। प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय पर केवल खिलजी ने ही नहीं उससे पूर्व हूण मिहिरकुल ने भी आक्रमण कर नष्ट करने का प्रयास किया था, यह अलग बात है कि वह ऐसा करने में सफल नहीं हो सका। इस आलोक में मैं निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि इतिहास लेखकों ने अतीत के वास्तविक खलनायकों की उपेक्षा की और एजेंडानुसार कुछ को स्वयं गढा है? क्या आप भी ऐसा सोचते हैं? यह रोचक प्रश्न इसलिये क्योकि भारतीयता सर्वदा धर्म सहिष्णु रही है, एक ही वंश के शासकों ने अलग अलग समय में अलग अलग धार्मिक मान्यताओं को प्राश्रय दिया। अनेक ऐसे उदाहरण भी हैं जहाँ राजा किसी एक मत का प्रचार-प्रसार कर रहा था तो उसकी महिषि किसी अन्य मत-सम्प्रदाय के सिद्धांतों की प्रतिपालक। एक साम्राज्य किसी योग्य शासक के कारण विस्तार पाता था तो अयोग्य अवनति अथवा पतन के कारण भी बने; ऐसे में नये दौर के इतिहास लेखन में विचित्र प्रवृत्ति देखी गयी है जहाँ सामाजिक दरारों को चौडा करने के लिये जबरन के खलनायकों का सृजन हुआ है, उदाहरण के लिये मौर्य शासन की अवनति के दौर में राजा बृहद्रथ की हत्या कर जब उनके सेनानी पुष्यमित्र शुंग द्वारा सिंहासन हथिया लिया गया तो उसे बौद्ध धर्म के सबसे बडे शत्रु के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह ब्राम्हण-बौद्ध विद्वेष का खेल नयी सदी का है जबकि किसी भी मत मान्यता के उत्थान और पतन के अपने कारण होते हैं। इस भूमिका के साथ ही बात करते हैं मिहिरकुल की।
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