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हिमालय के सघन वनों में ध्यानस्थ 'महासिद्ध ईशपुत्र' सिद्धत्व के सूत्र प्रदान करते हैं। जिन्हें 'महासिद्धत्व सूत्र' ग्रन्थ में संकलित किया गया। आज हम आपके लिए अति महत्वपूर्ण दूसरा सूत्र ले कर आये हैं। यहाँ केवल मूल सूत्र ही दिया गया है व्याख्या नहीं। क्या छिपा है प्रस्तुत द्वितीय सूत्र में? आप इस विडिओ में देखें।
महासिद्धत्व सूत्र-2 #ईशपुत्र
हे योगी!
सिद्धत्व का मार्ग आत्मज्ञान का मार्ग है और आत्मज्ञान का मार्ग, अहं भाव से मुक्ति।
अहं भाव से मुक्त योगी ही सिद्ध है, चैतन्य है, पूर्ण है और प्रकाशित भी।
पूर्ण प्रकाशित वो करुणावान सिद्ध है, जो तेज़, ज्ञान, सत्य व धर्म में लींन हो।
जो स्वयं के तेज से, धर्म से, समस्त प्राणिमात्र का कल्याण, आत्मरक्षापूर्वक करे।
हे योगी! संसार जिसे बहुत से नामो से पुकारता है, ईश्वर, भगवान, रहस्य, जाग्रण, शुद्ध चेतना, परब्रह्म आदि।
वो जिसने स्वयं की इच्छा से, स्वयं के विस्तार से, इस मायारूप विराट को रचा, वो स्वयं भी इससे अभिन्न है।
वो अनंत रूपरहित ही स्वयं को अनेक प्रकार से व्यक्त कर विविध रूपों में भासता हैं।
उस एक ही के व्यक्त विविध रूप, सदा एक-दूसरे से भिन्न प्रतीत होते हैं, किंतु वो सदैव जुड़े हुए और मूलत: एक ही हैं।
वही एक प्रपंच के विस्तार में अनंत शरीरों, मस्तिष्क व मन आदि से स्वयं को जोड़ कर सीमित कर देता है।
तब वही सीमित हो जाना ही उसे स्वयं के स्वतंत्र होने, अलग होने व अन्य वस्तुओं के भिन्न कोने का आभास देता है।
तब शरीर, मन और बुद्धि आदि को धारण करने पर, वो स्वयं के विशुद्ध रूप को छिपा लेता है।
उसे केवल मन, बुद्धि, इन्द्रियां, समय, परिवेश व वाह्य प्रतीत होती रचना ही सत्यरूप भासती है।
तब वो स्वयं के सत्य से कटा हुआ, बाह्य रचना की भूल-भुलैया से संघर्ष करने में लग जाता है।
यहीं उसे दुःख, अपमान, असमर्थता, लघुता, अहंकार, वासना, क्रोध आदि अनुभव होने लगते हैं।
वो स्वयं को अनेक रूपों, गुणों, से जोड़ कर रखने का प्रयास करता है, यही नश्वर का मोह पीड़ा बन जाता है।
तब वही सीमित हुआ बाह्य दृश्यों, मान्यताओं, अवधारणाओं, पंथों, दर्शन मार्गों आदि का सीमित रूप में रस लेने लगता हैं।
तब सीमित हुआ वो जन्मता है, मर जाता है, स्वयं को अलग मान कर दुःखयुक्त पीड़ित हो, मुक्त होने का उपाय खोजता है।
तब जन्म-मृत्यु की लम्बी शृंखला के मध्य वो जीने का संघर्ष करता है, ज्ञान का संघर्ष करता है, स्वयं को जानने का प्रयास करता है।
किन्तु ये प्रयास पूर्ण हों तब-तक मृत्यु की घडी आ जाती है और यही क्रम पुन: आरम्भ हो जाता है।
धीरे-धीरे वो अनुभव और स्मृतियों को ही जीवन और सत्य मान लेता है और बाहर के प्रपंचों में प्रयोग करता हुआ उसी जगत का हो जाता है।
भीतर गहरे में स्वयं से ही बिछड़ने की सूक्ष्म पीड़ा होती है किन्तु उस पीड़ा का कारण और ज्ञान नहीं होता।
तब सिद्धत्व का मार्ग तुम्हें शांत, मौन हो कर बैठ जाने को कहता है, वाह्य प्रपंच से परे, मन, बुद्धि, विचार से परे की निःस्तब्ध अवस्था में।
अभ्यास के परिणामस्वरूप जब तुम उस परम निःस्तब्ध अवस्था में स्थिर हो जाते हो।
तब वही स्वयं को सीमित कर चुका, पुन: स्वयं के वास्तविक रूप को जान जाता है, स्वयं को अभिन्न रूप देखने लगता है।
पाशमुक्त हो, प्रपंच मुक्त हो, सुख-दुःख के अनुभव से मुक्त हो, वास्तविक पूर्ण रूप को जान लेता है।
तब वो आश्चर्यचकित हो देखता है कि मैं ही सीमित हो जन्म-मृत्यु, अनुभव-स्मृतियों, काल और विश्व ब्रह्माण्ड की सीमाओं में बंधा हुआ था।
तब वो इसे सिद्धत्व की संज्ञा देता है, जागरण की संज्ञा देता है, मुक्त होने की संज्ञा देता है, पूर्णता की संज्ञा देता है।
तब उस स्थिति में कोई बंधन कहाँ है? कोई दुःख कहाँ है? कोई अपूर्णता कहाँ है? कोई भ्रम भी कहाँ शेष?
यदपि तुम्हारे द्वारा सत्य को जान लेने पर भी और स्वयं को स्थिर कर लेने पर भी, बाहर के ये प्रपंच अन्यों के लिए सत्य ही रहेंगे।
हे योगी! क्योंकि तुम्हारे पास शरीर है, ऐसे में इस प्रपंच के मध्य रहने हेतु तुम्हें संतुलन का आश्रय लेना होगा।
प्रकाशित व पूर्ण तुम हुए हो, स्व स्वरुप में तुम एकाकार हुए हो, किन्तु देह के होते हुए, जीवन के होते हुए इसका आत्मरक्षण करना।
तुम अपनी शुद्ध चैतन्यावस्था में, सिद्धत्व की अवस्था में लींन रहो, स्वयं को प्रकाशित होने दो।
-ईशपुत्र हिमालय
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