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प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आर सी मजूमदार अपनी पुस्तक गुप्त-वाकाटक युग की भूमिका में लिखते हैं “उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में भारत के प्राय: सभी भाग एक राजदण्ड की छत्रछाया में एकता के सूत्र में बंध गये”। यहाँ जो राजदण्ड शब्द है वह ध्यान खींचता है। “राजदण्ड की छत्रछाया में एकता” शब्द का प्रयोग विशेष निहितार्थ देता है, और यह भी स्पष्ट है कि बात किसी साम्राज्य विशेष की हो रही है, जिसे राजदण्ड सांकेतक के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। निश्चय ही राजदण्ड एक सांकेतक ही रहा होगा जो अपने प्राधिकार में आने वाले समस्त परिक्षेत्र की एकता, सुशासन और न्याय को सुनिश्चित करता रहा होगा। आज हमारा भारतवर्ष एक गणतंत्र है, यहाँ राजमहल नहीं संसद है, राजा नहीं प्रधानमंत्री हैं, दरबारी नहीं सांसद हैं तब यह बहस बलवती हो उठी है कि राजदण्ड अथवा सेंगोल की हमारी संसद में उपादेयता क्या है? जानते हैं इस वीडियो से।
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