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युद्ध भूमि से पलायन करने को कभी अच्छी दृष्टि से नहीं देखा गया लेकिन इस कहन में एक विरोधाभास भी है। भारतीय इतिहास का एक महानायक ऐसा भी है जिसने सैद्धांतिक एवं कूटनीतिक युक्ति के रूप में अनेक बार रणभूमि का त्याग किया है। हम आज श्रीकृष्ण और उन्हें प्राप्त रणछोड़ की उपाधि पर चर्चा करने जा रहे हैं। कृष्ण लड़े हैं और भरपूर लड़े हैं, हरबार विजयी रहे हैं परंतु फिर ऐसा क्यों है कि वे द्वन्द्व को तो प्रोत्साहित करते हैं युद्धों की कामना नहीं करते। वे कृष्ण ही तो हैं जिन्होंने वत्सासुर, वकासुर, अघासुर, धेनुकासुर, भौमासुर, बाणासुर, शिशुपाल, शाल्व, दंतवक्र, विदूरथ, रोमहर्षण आदि का दमन किया है। वे कालिया के फन को अकेले ही कुचलते हैं, वे कंस से स्वयं दो दो हाथ करते हैं। हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि मगध नरेश जरासंध को एक नहीं अठारह बार मथुरा की सेना ने पराजित किया था, महाराज उग्रसेन द्वारा शासित मथुरा की सेनाएँ श्रीकृष्ण के नेतृत्व में ही तो लड़ रही थी और विजयी हो रही थीं। ऐसे में कितना आश्चर्यजनक है श्रीकृष्ण का रणछोड़ना। उनके जीवन का यह पक्ष विवेचनीय है, साथ ही हमें जानना होगा कि क्या रण छोड़ना भी किसी तरह की युद्धनीति हो सकती है?
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